राजस्थान के दुर्ग(GURUGGKWALA)


राजस्थान के राजपूतों के नगरों और प्रासदों का निर्माण पहाडि़यों में हुआ, क्योकि वहां शुत्रओं के विरूद्ध प्राकृतिक सुरक्षा के साधन थे।

शुक्रनीति में दुर्गो की नौ श्रेणियों का वर्णन किया गया।

एरण दूर्ग

खाई, कांटों तथा कठौर पत्थरों से युक्त जहां पहुंचना कठिन हो जैसे – रणथम्भौर दुर्ग।

पारिख दूर्ग

जिसके चारों ओर खाई हो जैसे -लोहगढ़/भरतपुर दुर्ग।

पारिध दूर्ग

ईट, पत्थरों से निर्मित मजबूत परकोटा -युक्त जैसे -चित्तौड़गढ दुर्ग

वन/ओरण दूर्ग

चारों ओर वन से ढ़का हुआ जैसे- सिवाणा दुर्ग।

धान्वन दूर्ग

जो चारों ओर रेत के ऊंचे टीलों से घिरा हो जैसे-जैसलमेर ।

जल/ओदक

पानी से घिरा हुआ जैसे – गागरोन दुर्ग

गिरी दूर्ग

एकांत में पहाड़ी पर हो तथा जल संचय प्रबंध हो जैसे-दुर्ग, कुम्भलगढ़

सैन्य दूर्ग

जिसकी व्यूह रचना चतूर वीरों के होने से अभेद्य हो यह दुर्ग माना जाता हैं

सहाय दूर्ग

सदा साथ देने वाले बंधुजन जिसमें हो।

1. चित्तौड़गढ़ दुर्ग

चित्तौड़गढ का किला राज्य के सबसे प्राचीन और प्रमुख किलों में से एक है यह मौर्य कालिन दुर्ग राज्य का प्रथम या प्राचीनतम दुर्ग माना जाता है।

अरावली पर्वत श्रृखला के मेशा पठार पर धरती से 180 मीटर की ऊंचाई पर विस्तृत यह दुर्ग राजस्थान के क्षेत्रफल व आकार की दुष्टी से सबसे विसालकाय दुर्ग है जिसकी तुलना ब्रिटिश दुत सर हूयूज केशर ने एक भीमकाय जहाज से की थी उन्होंने लिखा हैं-

चित्तौड़ के इस सूनसान किलें मे विचरण करते समय मुझे ऐसा लगा मानों मे किसी भीमकाय जहाज की छत पर चल रहा हूँ”

चित्तौड़गढ दुर्ग ही राज्य का एकमात्र एसा दुर्ग है जो शुक्रनिती में वर्णित दुर्गों के अधिकांश प्रकार के अर्न्तगत रखा जा सकता है। जैसे गिरी दुर्ग, सैन्य दुर्ग, सहाय दुर्ग आदि।

इस किले ने इतिहास के उतार-चढाव देखे हैं। यह इतिहास की सबसे खूनी लड़ाईयों का गवाह है।चित्तौड़ के दुर्ग को 2013 में युनेस्को विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया।

एक किंवदन्मत के अनुसार पाण्डवों के दूसरे भाई भीम ने इसे करीब 5000 वर्ष पूर्व बनवाया था। इस संबंध में प्रचलित कहानी यह है कि एक बार भीम जब संपत्ति की खोज में निकला तो उसे रास्ते में एक योगी निर्भयनाथ व एक यति(एक पौराणिक प्राणी) कुकड़ेश्वर से भेंट होती है। भीम ने योगी से पारस पत्थर मांगा, जिसे योगी इस शर्त पर देने को राजी हुआ कि वह इस पहाड़ी स्थान पर रातों-रात एक दुर्ग का निर्माण करवा दे। भीम ने अपने शौर्य और देवरुप भाइयों की सहायता से यह कार्य करीब-करीब समाप्त कर ही दिया था, सिर्फ दक्षिणी हिस्से का थोड़ा-सा कार्य शेष था। योगी के ऋदय में कपट ने स्थान ले लिया और उसने यति से मुर्गे की आवाज में बांग देने को कहा, जिससे भीम सवेरा समझकर निर्माण कार्य बंद कर दे और उसे पारस पत्थर नहीं देना पड़े। मुर्गे की बांग सुनते ही भीम को क्रोध आया और उसने क्रोध से अपनी एक लात जमीन पर दे मारी, जिससे वहाँ एक बड़ा सा गड्ढ़ा बन गया, जिसे लोग भी-लत तालाब के नाम से जानते है। वह स्थान जहाँ भीम के घुटने ने विश्राम किया, भीम-घोड़ी कहलाता है। जिस तालाब पर यति ने मुर्गे की बाँग की थी, वह कुकड़ेश्वर कहलाता है।

इतिहासकारों के अनुसार इस किले का निर्माण मौर्यवंशीय राजा चित्रांगद ने सातवीं शताब्दी में करवाया था और इसे अपने नाम पर चित्रकूट के रूप में बसाया। बाद में यह चित्तौड़ कहा जाने लगा।राजा बाप्पा रावल मौर्यवंश के अंतिम शासक मानमोरी को हराकर यह किला अपने अधिकार में कर लिया। फिर मालवा के परमार राजा मुंज ने इसे गुहिलवंशियों से छीनकर अपने राज्य में मिला लिया। सन् 1133 में गुजरात के सोलंकी राजा जयसिंह (सिद्धराज) ने यशोवर्मन को हराकर परमारों से मालवा छीन लिया, जिसके कारण चित्तौड़गढ़ का दुर्ग भी सोलंकियों के अधिकार में आ गया।जयसिंह के उत्तराधिकारी कुमारपाल के भतीजे अजयपाल को परास्त कर मेवाड़ के राजा सामंत सिंह ने सन् 1174 के आसपास पुनः गुहिलवंशियों का आधिपत्य स्थापित कर दिया।

सन् 1303 में यहाँ के रावल रतनसिंह की अल्लाउद्दीन खिलजी से लड़ाई हुई। लड़ाई चितौड़ का प्रथम शाका के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस लड़ाई में अलाउद्दीन खिलजी की विजय हुई और उसने अपने पुत्र खिज्र खाँ को यह राज्य सौंप दिया। खिज्र खाँ ने वापसी पर चित्तौड़ का राजकाज कान्हादेव के भाई मालदेव को सौंप दिया।चित्तौड़गढ के प्रथम साके में रतन सिंह के साथ सेनानायक गोरा व बादल शहीद हुए।

बाप्पा रावल के वंशज राजा हमीर ने पुनः मालदेव से यह किला हस्तगत किया।सन् 1538 में चित्तौड़(शासक विक्रमादित्य ) पर गुजरात के बहादुरशाह ने आक्रमण कर दिया। इस युद्ध को मेवाड़ का दूसरा शाका के रूप में जाना जाता है।युद्ध के उपरान्त महाराणी कर्मावती ने जौहर किया। सन् 1567 में मेवाड़ का तीसरा शाका हुआ, जिसमें अकबर ने चित्तौड़(महाराणा उदयसिंह) पर चढ़ाई कर दी थी। चित्तौडगढ़ का तृतीय साका जयमल राठौड़ और पता सिसोदिया के पराक्रम और बलिदान के लिए प्रसिद्ध है।तीसरे शाके के बाद ही महाराणा उदयसिंह ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ से हटाकर अरावली के मध्य पिछोला झील के पास स्थापित कर दी, जो आज उदयपुर के नाम से जाना जाता है।

इसमें प्रवेश के रास्ते से लेकर अन्दर के परिसर तक कई एक इमारतें हैं, जिनका संक्षिप्त उल्लेख इस प्रकार है-

पाडन पोल

यह दुर्ग का प्रथम प्रवेश द्वार है। कहा जाता है कि एक बार भीषण युद्ध में खून की नदी बह निकलने से एक पाड़ा (भैंसा) बहता-बहता यहाँ तक आ गया था। इसी कारण इस द्वार को पाडन पोल कहा जाता है।

भैरव पोल (भैरों पोल)

पाडन पोल से थोड़ा उत्तर की तरफ चलने पर दूसरा दरवाजा आता है, जिसे भैरव पोल के रूप में जाना जाता है। इसका नाम देसूरी के सोलंकी भैरोंदास के नाम पर रखा गया है, जो सन् 1534 में गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह से युद्ध में मारे गये थे।

हनुमान पोल

दुर्ग के तृतीय प्रवेश द्वार को हनुमान पोल कहा जाता है। क्योंकि पास ही हनुमान जी का मंदिर है।

गणेश पोल

हनुमान पोल से कुछ आगे बढ़कर दक्षिण की ओर मुड़ने पर गणेश पोल आता है, जो दुर्ग का चौथा द्वार है।

जोड़ला पोल

यह दुर्ग का पाँचवां द्वार है और छठे द्वार के बिल्कुल पास होने के कारण इसे जोड़ला पोल कहा जाता है।

लक्ष्मण पोल

दुर्ग के इस छठे द्वार के पास ही एक छोटा सा लक्ष्मण जी का मंदिर है जिसके कारण इसका नाम लक्ष्मण पोल है।

राम पोल

लक्ष्मण पोल से आगे बढ़ने पर एक पश्चिमाभिमुख प्रवेश द्वार मिलता है, जिससे होकर किले के अन्दर प्रवेश कर सकते हैं। यह दरवाजा किला का सातवां तथा अन्तिम प्रवेश द्वार है।

इसके निकट ही महाराणाओं के पूर्वज माने जाने वाले सूर्यवंशी भगवान श्री रामचन्द्र जी का मंदिर है।

कीर्ति स्तम्भ(विजय स्तम्भ)

महाराणा कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूदशाह ख़िलजी को युद्ध में प्रथम बार परास्त कर उसकी यादगार में इष्टदेव विष्णु के निमित्त यह कीर्ति स्तम्भ था।

यह स्तम्भ 9 मंजिला तथा 120 फीट ऊंचा है।

इस स्तम्भ के चारों ओर हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां अंकित है।

इसे भारतीय इतिहास में मूर्तिकला का विश्वकोष अथवा अजायबघर भी कहते हैं

विजय स्तम्भ का शिल्पकार जेता , नापा, पौमा और पूंजा को माना जाता है।

जैन कीर्ति स्तम्भ

जैन कीर्ति स्तम्भ 75 फीट ऊँचा, सात मंजिलों वाला एक स्तम्भ बना है, जिसका निर्माण चौदहवीं शताब्दी में दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के बघेरवाल महाजन सा नांय के पुत्र जीजा ने करवाया था। यह स्तम्भ नीचे से 30 फुट तथा ऊपरी हिस्से पर 15 फुट चौड़ा है तथा ऊपर की ओर जाने के लिए तंग नाल बनी हुई हैं।

जैन कीर्ति स्तम्भ वास्तव में आदिनाथ का स्मारक है

महावीर स्वामी का मंदिर

जैन कीर्ति स्तम्भ के निकट ही महावीर स्वामी का मन्दिर है।

नीलकंठ महादेव का मंदिर(समधीश्‍वर मंदिर)

यह भगवान शिव को समर्पित है। इसका निर्माण11वीं शताब्‍दी के प्रारंभ में भोज परमार द्वारा करवाया था। बाद में मोकल ने 1428 ई. में इसका जीर्णोद्धार किया। मंदिर में एक गर्भगृह, एक अन्‍तराल तथा एक मुख्‍य मंडप है जिसके तीन ओर अर्थात् उत्‍तरी, पश्‍चिमी तथा दक्षिणी ओर मुख मंडप (प्रवेश दालान) हैं। मंदिर में भगवान शिव की त्रिमुखी विशाल मूर्ति स्‍थापित है।

कलिका माता का मन्दिर

राजा मानभंग द्वारा 9वीं शताब्‍दी में निर्मित यह मन्दिर मूल रूप से सूर्य को समर्पित है,

चित्तौड़ी बूर्ज व मोहर मगरी

दुर्ग का अंतिम दक्षिणी बूर्ज चित्तौड़ी बूर्ज कहलाता है और इस बूर्ज के 150 फीट नीचे एक छोटी-सी पहाड़ी (मिट्टी का टीला) दिखाई पड़ती है। यह टीला कृत्रिम है और कहा जाता है कि सन् 1567 ई. में अकबर ने जब चित्तौड़ पर आक्रमण किया था, तब अधिक उपयुक्त मोर्चा इसी स्थान को माना और उस मगरी पर मिट्टी डलवा कर उसे ऊँचा उठवाया, ताकि किले पर आक्रमण कर सके। प्रत्येक मजदूर को प्रत्येक मिट्टी की टोकरी हेतु एक-एक मोहर दी गई थी। अतः इसे मोहर मगरी कहा जाता है।

कुम्भ श्याम मंदिर, मीरा मंदिर, पदमनी महल, फतेह प्रकाश संग्रहालय,जयमल व कल्ला की छतरियाँ तथा कुम्भा के महल (वर्तमान में जीर्ण -शीर्ण अवस्था) आदि प्रमुख दर्शनिय स्थल है।

2. अजयमेरू दुर्ग(तारागढ़)

बीठली पहाड़ी पर बना होने के कारण इस दुर्ग को गढ़बीठली के नाम से जाना जाता है।

यह गिरी श्रेणी का दुर्ग है। यह दुर्ग पानी के झालरों के लिए प्रसिद्ध है।

इस दुर्ग का निर्माण अजमेर नगर के संस्थापक चैहान नरेश अजयराज ने करवाया।

मेवाड़ के राणा रायमल के युवराज (राणा सांगा के भाई) पृथ्वी राज (उड़ाणा पृथ्वी राज) ने अपनी तीरांगना पत्नी तारा के नाम पर इस दुर्ग का नाम तारागढ़ रखा।

रूठी रानी (राव मालदेव की पत्नी) आजीवन इसी दुर्ग में रही।

तारागढ़ दुर्ग की अभेद्यता के कारण विशप हैबर ने इसे “राजस्थान का जिब्राल्टर ” अथवा “पूर्व का दूसरा जिब्राल्टर” कहा है।

इतिहासकार हरबिलास शारदा ने “अखबार-उल-अखयार” को उद्घृत करते हुए लिखा है, कि तारागढ़ कदाचित भारत का प्रथम गिरी दुर्ग है।

तारागढ़ के भीतर प्रसिद्ध मुस्लिम संत मीरान साहेंब (मीर सैयद हुसैन) की दरगाह स्थित है।

रूठी रानी का वास्तविक नाम उम्रादे भटियाणी था।

3. तारागढ दुर्ग(बूंदी)

इस दुर्ग का निर्माण देवसिंह हाड़ा/बरसिंह हाड़ा ने करवाया।

तारे जैसी आकृति के कारण इस दुर्ग का नाम तारागढ़ पड़ा।

यह दुर्ग “गर्भ गुंजन तोप” के लिए प्रसिद्ध है।

भीम बुर्ज और रानी जी की बावड़ी (राव अनिरूद्ध सिंह) द्वारा इस दुर्ग मे स्थित हैं

रंग विलास (चित्रशाला) इस दुर्ग में स्थित हैं।

रंग विलास चित्रशाला का निर्माण उम्मेद सिंह हाड़ा ने किया।

इतिहासकार किप्ल्रिन के अनुसार इस किले का निर्माण भूत-प्रेत व आत्माओं द्वारा किया गया। तारागढ दुर्ग (बूंदी) भित्ति चित्रण की दृष्टि से समृद्ध किया जाता है।

4. रणथम्भौर दुर्ग(सवाई माधोपुर)

सवाई माधोपुर शहर के निकट स्थित रणथम्भौर दुर्ग अरावली पर्वत की विषम आकृति वाली सात पहाडि़यों से घिरा हुआ एरण दुर्ग है। यह किला यद्यपि एक ऊँचे शिखर पर स्थित है, तथापि समीप जाने पर ही दिखाई देता है। यह दुर्ग चारों ओर से घने जंगलों से घिरा हुआ है तथा इसकी किलेबन्दी काफी सुदृढ़ है। इसलिए अबुल फ़ज़ल ने इसे बख्तरबंद किला कहा है। इस किले का निर्माण कब हुआ कहा नहीं जा सकता लेकिन ऐसी मान्यता है कि इसका निर्माण आठवीं शताब्दी में चौहान शासकों ने करवाया था।

हम्मीर देव चौहान की आन-बान का प्रतीक रणथम्भौर दुर्ग पर अलाउद्दीन खिलजी ने 1301 में ऐतिहासिक आक्रमण किया था। हम्मीर विश्वासघात के परिणामस्वरूप लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ तथा उसकी पत्नी रंगादेवी ने जौहर(एकमात्र जल जौहर) कर लिया। यह जौहर राजस्थान के इतिहास का प्रथम जौहर माना जाता है।

रणथम्भौर किले में बने हम्मीर महल, हम्मीर की कचहरी,सुपारी महल(सुपारी महल में एक ही स्थान पर मन्दिर और गिर्जाघर स्थित है।), बादल महल, बत्तीस खंभों की छतरी, जैन मंदिर तथा त्रिनेत्र गणेश मंदिर उल्लेखनीय हैं। रणथम्भौर दुर्ग मे लाल पत्थरों से निर्मित 32 कम्भों की एक कलात्मक छत्रि है जिसका निर्माण हम्मिर देव चौहन ने अपने पिता जेत्र सिंह के 32 वर्ष के शासन के प्रतिक के रूप में करवाया था।

5. मेहरानगढ़ दुर्ग(जोधपुर)

राठौड़ों के शौर्य के साक्षी मेहरानगढ़ दुर्ग की नींव मई, 1459 में रखी गई।

मेहरानगढ़ दुर्ग चिडि़या-टूक पहाडी पर बना है।

मोर जैसी आकृति के कारण यह किला मयूरध्वजगढ़ कहलाता है।

दर्शनीय स्थल

1.चामुण्डा माता मंदिर –यह मंदिर राव जोधा ने बनवाया।

1857 की क्रांति के समय इस मंदिर के क्षतिग्रस्त हो जाने के कारण इसका पुनर्निर्माण महाराजा तखतसिंह न करवाया।

2.चोखे लाव महल- राव जोधा द्वारा निर्मित महल है।

3.फूल महल – राव अभयसिंह राठौड़ द्वारा निर्मित महल है।

4. फतह महल – इनका निर्माण अजीत सिंह राठौड ने करवाया।

5. मोती महल – इनका निर्माता सूरसिंह राठौड़ को माना जाता है।

6. भूरे खां की मजार

7. महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश (पुस्तकालय)

8. दौलतखाने के आंगन में महाराजा तखतसिंह द्वारा विनिर्मित एक शिंगगार चैकी (श्रृंगार चैकी) है जहां जोधपुर के राजाओं का राजतिलक होता था।

दुर्ग के लिए प्रसिद्ध उन्ति – ” जबरों गढ़ जोधाणा रो”

ब्रिटिश इतिहासकार किप्लिन ने इस दुर्ग के लिए कहा है कि – इस दुर्ग का निर्माण देवताओ, फरिश्तों, तथा परियों के माध्यम से हुआ है।

दुर्ग में स्थित प्रमुख तोपें- 1.किलकिला 2. शम्भू बाण 3. गजनी खां 4. चामुण्डा 5. भवानी

6. सोनारगढ़ दुर्ग(जैसलमेर)

इस दुर्ग को उत्तर भड़ किवाड़ कहते है।

यह दुर्ग धान्व व गिरी श्रेणी का दुर्ग है।

यह दुर्ग त्रिकुट पहाड़ी/ गोहरान पहाड़ी पर बनी है।

दुर्ग के अन्य नाम – गोहरानगढ़ , जैसाणागढ़

स्थापना -राव जैसल भाटी के द्वारा 1155 ई. में हुआ।

दुर्ग निर्माण में चूने का प्रयोग नहीं हुआ है।

पीले पत्थरों से निर्मित होने के कारण स्वर्णगिरि कहलाती है।

इस किले में 99 बुर्ज है।

यह दुर्ग राजस्थान में चित्तौड़गढ के पश्चात् सबसे बडा फोर्ट है।

जैसलमेर दुर्ग की सबसे प्रमुख विशेषता इसमें ग्रन्थों का एक दुर्लभ भण्डार है जो जिनभद्र कहलाता है। सन् 2005 में इस दुर्ग को वल्र्ड हैरिटेज सूची में शामिल किया गया।

आस्कर विजेता ” सत्यजीतरे” द्वारा इस दुर्ग फिल्म फिल्माई गई।

जैसलमेर में ढाई साके होना लोकविश्रुत है।

1.पहला साका – दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलज्जी व भाटी शासक मूलराज के मध्य युद्ध हुआ।

2.द्वितीय साका – फिरोज शाह तुगलक के आक्रमण रावल दूदा व त्रिलोक सिंह के नेतृत्व मे वीरगति प्राप्त की।

3.तीसरा साका – जैसलमेर का तीसरा साका जैसलमेर का अर्द्ध साका राव लूणसर में 1550 ई. में हुआ।

आक्रमण कन्द शासक अमीर अली था।

प्रसिद्व उक्ति

गढ़ दिल्ली, गढ़ आगरा, अधगढ़ बीकानेर।
भलो चिणायों भाटियां, गढ ते जैसलमेर।

अबुल फजल ने इस दुर्ग के बारे में कहा है कि केवल पत्थर की टांगे ही यहां पहुंचा सकती है।

7. मैग्जीन दुर्ग(अजमेर)

यह दुर्ग स्थल श्रेणी का है।

मुगल सम्राट अकबर द्वारा निर्मित है।

इस दुर्ग को ” अकबर का दौलतखाना” के रूप में जाना जाता है।

पूर्णतः मुस्लिम स्थापत्य कला पर आधारित है।

सर टाॅमस ने सन् 1616 ई. में जहांगीर को अपना परिचय पत्र इसी दुर्ग में प्रस्तुत किया।

8. आमेर दुर्ग-आमेर (जयपुर)

यह गिरी श्रेणी का दुर्ग है।

इसका निर्माण 1150 ई. में दुल्हराय कच्छवाह ने करवाया।

यह किला मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है।

1.शीला माता का मंदिर 2 सुहाग मंदिर 3 जगत सिरोमणि मंदिर

प्रमुख महल

1. श्शीश महल 2.दीवान-ए-खाश 3. दीवान-ए-आम

बिसप हैबर आमेर के महलों की सुंदरता के बारे में लिखता है कि ” मैने क्रेमलिन में जो कुछ देखा है और अलब्रह्राा के बारे में जो कुछ सुना है उससे भी बढ़कर ये महल है।”

मावठा तालाब और दिलारान का बाग उसके सौंदर्य को द्विगुणित कर देते है। ‘दीवान-ए-आम’ का निर्माण मिर्जा राजा जय सिंह द्वारा किया गया।

9. जयगढ दुर्ग(जयपुर)

यह दुर्ग चिल्ह का टिला नामक पहाड़ी पर बना हुआ है।

इस दुर्ग का निर्माण मिर्जा राजा जययसिंह ने करवाया। लेकिन महलों का निर्माण सवाई जयसिंह ने करवाया।

इस दुर्ग में तोप ढ़ालने का कारखाना स्थित है।

सवाई जयसिंह निर्मित जयबाण तोप पहाडि़यों पर खडी सबसे बड़ी तोप मानी जाती है।

आपातकाल के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री श्री मति इन्द्रागांधी ने खजाने की प्राप्ति के लिए किले की खुदाई करवाई गई।

विजयगढ़ी भवन (अंत दुर्ग) कच्छवाह शासकों की शान है।

10. नहारगढ दुर्ग(जयपुर)

इस दुर्ग का निर्माण 1734 में सवाई जयसिंह नें किया।

किले के भीतर विद्यमान सुदर्शन कृष्ण मंदिर दुर्ग का पूर्व नाम सूदर्शनगढ़ है।

नाहरसिंह भोमिया के नाम पर इस दुर्ग का नहारगढ़ रखा गया।

राव माधों सिंह – द्वितीय ने अपनी नौ प्रेयसियों के लिए एक किले का निर्माण नाहरगढ़ दुर्ग में करवाया। इस दुर्ग के पास जैविक उद्यान स्थित है।

11. गागरोण दुर्ग(झालावाड़)

झालावाड़ से चार किमी दूरी पर अरावली पर्वतमाला की एक सुदृढ़ चट्टान पर कालीसिन्ध और आहू नदियों के संगम पर बना यह किला जल दुर्ग की श्रेणी में आता है।

यह दुर्ग बिना किसी नीव के मुकंदरा पहाड़ी की सीधी चट्टानों पर खड़ा अनूठा किला है।

इस किले का निर्माण कार्य डोड राजा बीजलदेव ने बारहवीं सदी में करवाया था।

डोडा राजपूतों के अधिकार के कारण यह दुर्ग डोडगढ/ धूलरगढ़ नामों से जाना गया।

“चोहान कुल कल्पद्रुम” के अनुसार खींची राजवंश का संस्थापक देवन सिंह उर्फ धारू न अपने बहनोई बीजलदेव डोड को मारकर धूलरगढ़ पर अधिकार कर लिया तथा उसका नाम गागरोण रखा।

यह दुर्ग शौर्य ही नहीं भक्ति और त्याग की गाथाओं का साक्षी है। संत रामानन्द के शिष्य संत पीपा इसी गागरोन के शासक रहे हैं, जिन्होंने राजसी वैभव त्यागकर राज्य अपने अनुज अचलदास खींची को सौंप दिया था। सन् 1423 ई. में अचलदास खींची (भोज का पुत्र) तथा मांडू के सुलतान अलपंखा गौरी (होंशगशाह) के मध्य भीष्ण युद्ध हुआ। अचलदास खींची वीरगति को प्राप्त हुवे| उनकी रानी और दुर्ग की अनेक ललनाओं ने अपने आप को जौहर की अग्नि में झोक दिया|जिसे गागरोन का प्रथम शाका कहते है|

राजा अचल दास ने वंश की रक्षा के लिए अपने पुत्र पाल्हणसी को दुर्ग से पलायन करवाया जिसके साथ राजा अचलदास के राज्यकवि शिवदास गाडण भी दुर्ग से निकल गए और बाद में उन्होंने राजा अचलदास की वीरता और शौर्य से प्रेरित होकर कालजयी ग्रन्थ “ अचलदास खिंची री वचनिका “ की रचना की थी जिससे अचलदास के जीवन और व्यक्तित्व पर प्रकाश पड़ता है|

राणा कुम्भा ने मांडू के सुलतान को पराजित कर गागरोन दुर्ग भी हस्तगत कर इसे अपने भांजे पाल्हणसी को सौप दिया

सन् 1444 ई. में पाल्हणसी खीची व महमूद खिलजी के मध्य युद्ध हुआ। पाल्हणसी खींची को भीलो ने मार दिया (जब वह दुर्ग से पलायन कर रहा था) कुम्भा द्वारा भेजे गए धीरा (घीरजदेव) के नेतृत्व में केसरिया हुआ और ललनाओं ने जौहर किया।जिसे गागरोन का दूसरा शाका भी कहते है| विजय के उपरान्त सुलतान ने दुर्ग का नाम मुस्तफाबाद रखा गागरोन में मुस्लिम संत पीर मिट्ठे साहब की दरगाह भी है, जिनका उर्स आज भी प्रतिवर्ष यहाँ लगता है।

दर्शनीय स्थल:

1.संत पीपा की छत्तरी 2. मिट्ठे साहब की दरगाह

तथ्य

जैतसिंह के शासनकाल में खुरासान से प्रसिद्ध सूफीसंत हमीदुद्दीन चिश्ती (मिट्ठे साहब) गागरोण आए।

3.जालिम कोट परकोटा 4. गीध कराई

महमूद खिलजी ने विजय के उपरांत दुर्ग का नाम बदल कर मुस्तफाबाद रखा।

अकबर ने गागरोण दुर्ग बीकानेर के राजा कल्याणमल पुत्र पृथ्वीराज को जागीर में दे दिया जो एक भक्त कवि और वीर योद्धा था।

विद्वानों के अनुसार इस पृथ्वीराज ने अपना प्रसिद्व ग्रन्थ “वेलिक्रिसन रूकमणीरी” गागरोण में रहकर लिखा।

12 कुम्भलगढ़ दुर्ग(राजसमंद)

अरावली की तेरह चोटियों से घिरा, जरगा पहाडी पर (1148 मी.) ऊंचाई पर निर्मित गिरी श्रेणी का दुर्ग है।

इस दुर्ग का निर्माण महाराणा कुम्भा ने वि. संवत् 1505 ई. में अपनी पत्नी कुम्भलदेवी की स्मृति में बनवाया।

इस दुर्ग का निर्माण कुम्भा के प्रमुख शिल्पी मण्डन की व देखरेख में हुआ।

इस दुर्ग को मेवाड़ की आंख कहते है

इस किले की ऊंचाई के बारे में अबुल फजल ने लिखा है कि ” यह इतनी बुलन्दी पर बना हुआ है कि नीचे से देखने पर सिर से पगड़ी गिर जाती है।”

कर्नल टाॅड ने इस दुर्ग की तुलना “एस्टुकन”से की है।

इस दुर्ग के चारों और 36 कि.मी. लम्बी दीवार बनी हुई है। दीवार की चैड़ाई इतनी है कि चार घुडसवार एक साथ अन्दर जा सकते है। इस लिए इसे ‘भारत की महान दीवार’ भी कहा जाता है।

दुर्ग के अन्य नाम – कुम्भलमेर कुम्भलमेरू, कुंभपुर मच्छेद और माहोर।

कुम्भलगढ दुर्ग के भीतर एक लघु दुर्ग भी स्थित है, जिसे कटारगढ़ कहते है, जो महाराणा कुम्भा का निवास स्थान रहा है।

महाराणा कुम्भा की हत्या उनके ज्येष्ठ राजकुमार ऊदा (उदयकरण) न इसी दुर्ग में की।

इस दुर्ग में ‘झाली रानी का मालिका’ स्थित है।

उदयसिंह का राज्यभिषेक तथा वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का जन्म कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआा है।

13 बयाना दुर्ग (भरतपुर)

यह दुर्ग गिरी श्रेणी का दुर्ग है।

इस दुर्ग का निर्माण विजयपाल सिंह यादव न करवाया।

अन्य नाम- शोणितपुर, बाणपुर, श्रीपुर एवं श्रीपथ है।

अपनी दुर्भेद्यता के कारण बादशाह दुग व विजय मंदिर गढ भी कहलाता है।

दर्शनीय स्थल

1.भीमलाट- विष्णुवर्घन द्वारा लाल पत्थर से बनवाया गया स्तम्भ

2.विजयस्तम्भ- समुद्र गुप्त द्वारा निर्मित स्तम्भ है।

3.ऊषा मंदिर 4. लोदी मीनार

14 सिवाणा दुर्ग(बाड़मेर)

यह दुर्ग गिरी तथा वन दोनों श्रेणी का दुर्ग है।

कुमट झाड़ी की अधिकता के कारण इसे कुमट दुर्ग भी कहते है।

इस दुर्ग का निर्माण श्री वीरनारायण पवांर ने छप्पन की पहाडि़यों में करवाया।

इस दुर्ग में दो साके हुए है।

1.पहला साका – सन् 1308 ई. में शीतलदेव चैहान के समय आक्रांता अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के कारण सांका हुआ।

2.दूसरा साका – वीर कल्ला राठौड़ के समय अकबर से सहायता प्राप्त मोटा राजा उदयसिंह के आक्रमण के कारण साका हुआ। यह साका सन 1565 ई. में हुआ।

15 जालौर दुर्ग(जालौर)

प्राचीन नाम – जाबालीपुर दुर्ग तथा कनकाचल।

अन्य नाम- सुवर्णगिरी, सोनगढ़।

परमार शासकों द्वारा सुकडी नदी के किनारे निर्मित हैं

यह दुर्ग गिरी श्रेणी का दुर्ग है।

यह दुर्ग सोन पहाडी पर स्थित दुर्ग है।

साका

सन् 1311 ई. में कान्हड देव चैहान के समय अलाउद्दीन खिलजी ने आक्रमण किया। इस आक्रमण में कान्हडदेव चैहान व उसका पुत्र वीरदेव वीरगति को प्राप्त हुुए तथा वीरांगनाओं ने जौहर कर लिया।

इस साके की जानकारी पद्मनाभ द्वारा रचित कान्हडदेव में मिलती है।

संत मलिक शाह की दरगाह इस दुर्ग के प्रमुख और उल्लेखनीय थी।

16 मंडरायल दुर्ग(सवाई माधोपुर)

इस दुर्ग को ” ग्वालियर दुर्ग की कुंजी” कहा जाता है।

मंडरायल दुर्ग मर्दान शाह की दरगाह के लिए प्रसिद्ध है।

17 भैंसरोड़गढ दुर्ग(चित्तौड़गढ)

बामणी व चम्बल नदियों के संगम पर स्थित होने के कारण यह दुर्ग जल श्रेणी का दुर्ग है।

भैंसरोडगढ़ दुर्ग को “राजस्थान का वेल्लोर” कहते है।

इस दुर्ग का निर्माता भैसाशाह व रोडावारण को माना जाता है।

18 मांडलगढ़ दुर्ग(भीलवाडा)

इस दुर्ग का निर्माण महाराणा कुम्भा ने करवाया।

यह दुर्ग जल श्रेणी का दुर्ग है।

मांडलगढ़ दुर्ग बनास, बेडच व मेनाल नदियों के संगम पर स्थित है।

यह दुर्ग सिद्ध योगियों का प्रसिद्ध केन्द्र रहा है।

19 भटनेर दुर्ग(हनुमानगढ़)

इस दुर्ग का निर्माण सन् 285 ई. में भाटी राजा भूपत ने करवाया।

घग्गर नदी के मुहाने पर बसे इस, प्राचीन दुर्ग को ” उत्तरी सीमा का प्रहरी” कहा जाता है।

भटनेर दुर्ग धान्वन श्रेणी का दुर्ग है।

इस दुर्ग पर सर्वाधिक आक्रमण हुए। विदेशी आक्रमणकारियों में

1.महमूद गजनवी न विक्रम संवत् 1058 (1001 ई.) में भटनेर पर अधिकार कर लिया था।

2.13 वीं शताब्दी के मध्य में गुलाम वंश के सुल्तान बलवन के शासनकाल में उसका चचेरा भाई शेर खां यहां का हाकिम था।

3.1398 ई. में भटनेर को प्रसिद्ध लुटेरे तैमूरलंग के अधिन विभीविका झेलनी पड़ी।

बीकानेर के चैथे शासक राव जैतसिंह ने 1527 ई. में आक्रमण कर भटनेर पर पहली बार राठौडों का आधिपत्य स्थापित हुआ। उसने राव कांधल के पोत्र खेतसी को दुर्गाध्यक्ष नियुक्त किया

4.हुन्मायु के भाई कामरान ने भटनेर पर आक्रमण किया।

सन् 1805 ई. में महाराजा सूरतसिंह द्वारा मंगलवार को जाब्ता खां भट्टी से भटनेर दुर्ग हस्तगत कर लिया। भटनेर का नाम हनुमानगढ़ रखा गया।

तैमूर लंग ने इस दुर्ग के लिए कहा कि ” उसने इतना व सुरक्षित किला पूरे हिन्तुस्तान में कहीं नही देखा।” तैमूरलग की आत्मकथा ” तुजुक-ए-तैमूरी “के नाम से है।

यह दुर्ग 52 बीघा भूमि पर निर्मित है।

6380 कंगूरों के लिए प्रसिद्ध है।

इस दुर्ग में शेर खां की मजार स्थित है।

20 भरतपुर दुर्ग(भरतपुर)

इस दुर्ग का निर्माण सन् 1733 ई. में राजा सूरजमल ने करवाया था।

मिट्टी से निर्मित यह दुर्ग अपनी अजेयता के लिए प्रसिद्ध है।

किले के चारों ओर सुजान गंगा नहर बनाई गई जिसमे पानी लाकर भर दिया जाता था।

यह दुर्ग पारिख श्रेणी का दुर्ग है।

मोती महल, जवाहर बुर्ज व फतेह बुर्ज (अंग्रेजों पर विजय की प्रतीक है।)

सन् 1805 ई. में अंग्रेज सेनापति लार्ड लेक ने इस दुर्ग को बारूद से उडाना चाहा लेकिन असफल रहा।

इस दुर्ग में लगा अष्टधातू का दरवाजा महाराजा जवाहर सिंह 1765 ई. में ऐतिहासिक लाल किले से उतार लाए थे।

21 चुरू का किला (चुरू)

धान्व श्रेणी के इस दुर्ग का निर्माण ठाकुर कुशाल सिंह ने करवाया।

महाराजा शिवसिंह के समय बारूद खत्म होने पर यहां से चांदी के गोले दागे गए।

22 जूनागढ़ दुर्ग (बीकानेर)

यह दुर्ग धान्व श्रेणी का दुर्ग हैं।

लाल पत्थरों से बने इस भव्य किले का निर्माण बीकानेर के प्रतापी शासक रायसिंह ने करवाया।

इस दुर्ग की निर्माण शैली में मुगल शैली का समन्वय है।

इस दुर्ग को अधगढ़ किला कहते हैं।

इस दुर्ग में जैइता मुनि द्वारा रचित रायसिंह , प्रशस्ति स्थित है।

सूरजपोल की एक विशेष बात यह है कि इसके दोनों तरफ 1567 ई. के चित्तौड़ के साके में वीरगति पाने वाले दो इतिहास प्रसिद्ध वीरों जयमल मेडतियां और उनके बहनोई आमेर के रावत पता सिसोदिया की गजारूढ मूर्तियां स्थापित है।

दर्शनीय स्थल

1.हेरम्भ गणपति मंदिर 2. अनूपसिंह महल 3. सरदार निवास महल

23 नागौर दुर्ग(नागौर)

नागौर दुर्ग के उपनाम नागदुर्ग, नागाणा व अहिच्छत्रपुर है।

इस दुर्ग का निर्माण चैहान वंश के शासक सोमेश्वर ने किया।

अमर सिंह राठौड़ की वीर गाथाएं इस दुर्ग से जुडी है।

नागौर दुर्ग को एक्सीलेंस अवार्ड मिला है।

24 अचलगढ़ दुर्ग(सिरोही)

परमार वंश के शासकों द्वारा 900 ई. के आसपास निर्मित किया गया।

इस दुर्ग को आबु का किला भी कहते हैं

दर्शनीय स्थल

1.अचलेश्वर महादेव मंदिर- शिवजी के पैर का अंगूठा प्रतीक के रूप में विद्यमान है।

2.भंवराथल – गुजरात का महमूद बेगडा जब अचलेश्वर के नदी व अन्य देव प्रतिमाओं को खण्डित कर लौट रहा था तब मक्खियों न आक्रमणकारियों पर हमला कर दिया।

इस घटना की स्मृति में वह स्थान आज भी भंवराथल नाम से प्रसिद्ध है।

3.मंदाकिनी कुण्ड – आबू पर्वतांचल में स्थित अनेक देव मंदिरों के कारण आबू पर्वत को हिन्दू ओलम्पस (देव पर्वत) कहा जाता है।

25 शेरगढ़ दुर्ग(धौलपुर)

इस दुर्ग का निर्माण कुशाण वंश के शासन काल में करवाया था।

शेरशाह सूरी ने इस दुर्ग का पुनर्निर्माण करवाकर इसका नाम शेरगढ़ रखा।

यह किला “दक्खिन का द्वार गढ” नाम से प्रसिद्ध है।

महाराजा कीरतसिंह द्वारा निर्मित “हुनहुंकार तोप” इसी दुर्ग में स्थित है।

26 शेरगढ़ दुर्ग(बांरा)

यह दुर्ग परवन नदी के किनारे स्थित है।

हाडौती क्षेत्र का यह दुर्ग कोशवर्धन दुर्ग के नाम से भी प्रसिद्ध है।

27 चैमू का किला (जयपुर)

इस किले का निर्माण ठाकुर कर्णसिंह ने करवाया।

उपनाम- चौमूहांगढ़, धाराधारगढ़ तथा रधुनाथगढ।

28 कांकणबाडी का किला (अलवर)

इस किले में औरंगजेब ने अपने भाई दाराशिकोह को कैद करके रखा था।

अन्य दुर्ग

29. कोटडा का किला – बाडमेर

30. खण्डार दुर्ग-सवाई माधोपुर-शारदा तोप इस दुर्ग में स्थित है।

31. माधोराजपुरा का किला – जयपुर

32. कंकोड/कनकपुरा का किला – टोंक

33. शाहबाद दुर्ग – बांरा -नवलवान तोप इस दुर्ग में स्थित है।

34. बनेडा दुर्ग – भीलवाडा

35. बाला दुर्ग – अलवर

36. बसंतगढ़ किला – सिरोही

37. तिमनगढ़ किला – करौली

38 .सामोद का किला – जयपुर

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