इतिहास को प्रागैतिहासिक काल, आद्यऐतिहासिक काल एवं ऐतिहासिक काल में बांटा जाता है। प्रागैतिहासिक काल से तात्पर्य है कि उस समय के मानव के इतिहास के बारे में कोई लिखित सामग्री नहीं मिलती है बल्कि पुरातात्विक सामग्रियों के आधार पर ही उसके इतिहास (संस्कृति) के बारे में अनुमान लगाया जाता है। ऐसी सभ्यता एवं संस्कृतियों को पुरातात्विक सभ्यता/संस्कृति या प्रागैतिहासिक काल कहते हैं। जब मानव लेखन कला से तो परिचित हो गया लेकिन उसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है, तो उसे आद्यऐतिहासिक कालीन सभ्यता/संस्कृति कहते हैं, जैसे-सिन्धु सभ्यता जब से मानव के बारे में पठन योग्य (लिखित) सामग्री मिलना शुरू हो जाती है तो उसे ऐतिहासिक काल कहते हैं।
राजस्थान में मानव सभ्यता के प्राचीनतम साक्ष्य नदी घाटियों में देखने को मिलते है।
राजस्थान का पाषाणकाल
राजस्थान प्रदेश में आदि मानव द्वारा प्रयुक्त जो प्राचीनतम् पाषाण उपकरण उपलब्ध हुए हैं, वे लगभग डेढ़ लाख वर्ष पुराने हैं। इस भूखण्ड में मानव सभ्यता उससे भी पुरानी हो सकती है। राजस्थान में मानव सभ्यता पुरा पाषाण, मध्य पाषाण तथा उत्तर पाषाण काल से होकर गुजरी।
पुरापाषाण काल
पुरापाषाणकाल दस लाख वर्ष पूर्व से दस हजार वर्ष पूर्व तक का काल समेटे हुए है। सन् 1870 में सी.ए. हैकट ने ‘हैण्डएक्स’ ‘एश्यूलियन’ व ‘क्लीवर’ जयपुर एवं इन्दरगढ़ से खोज निकाले थे, जो भारतीय संग्रहालय कलकत्ता में उपलब्ध हैं। राजस्थान में पुरातात्विक सर्वेक्षण कार्य सर्वप्रथम 1871 ई. में प्रारम्भ करने का श्रेय ए.सी.एल. कार्लाइल को दिया जाता है। उन्होंने दौसा क्षेत्र से कठोर पाषाण व मानव अस्थियों की प्राप्ति की सूचना दी। कुछ ही समय के उपरान्त श्री सेटनकार को झालावाड़ जिले में उक्त काल के कुछ उपकरण मिले। पिछले दो दशकों में योजनाबद्ध तरीके से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण नई दिल्ली, डेक्कन कॉलेज पूना के श्री वीरेन्द्रनाथ मिश्र, पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग राजस्थान के सर्व श्री रत्नचन्द्र अग्रवाल, विजयकुमार, हरिश्चन्द्र मिश्रा आदि ने इस संस्कृति को उद्घाटित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। सन् 1971-76 में डॉ. आल्चिन, ए.एस. गाउडी व के.टी.एम. हेगड़े ने बूढ़ा पुष्कर, अजमेर एवं जैसलमेर में मध्य पाषाणकाल के उपकरणों की खोज की। पश्चिमी राजस्थान में लूणी नदी के किनारे तथा श्रीमती बी. ऑलचिन ने जालौर जिले में बालू के टीलों में पाषाणयुगीन उपकरण खोज निकाले हैं।
विराट नगर में कुछ प्राकृतिक गुफाएँ तथा शैलाश्रय खोज निकाले गये हैं, जिनमें प्रारंभिक पाषाण काल से लेकर उत्तर पाषाण काल तक की सामग्री उपलब्ध हुई है। इनमें चित्रों का अभाव है, पर भरतपुर जिले के ‘दर’ नामक स्थान से कुछ चित्रित शैलाश्रय प्राप्त हुए हैं, जिनमें मानवाकृति, व्याघ्र, बारहसिंगा तथा सूर्य आदि के अंकन प्रमुख हैं।
पुरापाषाणकालीन मानव का आहार शिकार से प्राप्त वन्य पशु, प्राकृतिक रूप से प्राप्त कन्द, मूल, फल, पक्षी, मछली आदि थे। इस समय का मानव आग जलाना सीख चुका था लेकिन अभी पहिये से अपरिचित था।
मध्यपाषाण काल
मध्यपाषाण काल लगभग 10 हजार वर्ष पूर्व से आरंभ हुआ। इस काल के उपकरणों में ‘स्क्रेपर’ तथा ‘पाइंट’ विशेष उल्लेखनीय हैं। ये औजार लूनी और उसकी सहायक नदियों की घाटियों में, चित्तौड़गढ़ जिले की बेड़च नदी की घाटी में और विराटनगर से भी प्राप्त हुए हैं। इस समय तक मानव पशुपालन सीख चुका था लेकिन उसे कृषि का ज्ञान नहीं हुआ था।
उत्तर/नवपाषाण काल
उत्तरपाषाण काल का आरंभ लगभग 5 हजार ईसा पूर्व से माना जाता है। इस काल में पहले हाथ से और फिर चाक से बर्तन बनाये गये अर्थात् मानव पहिये से परिचित हो गया। इस युग के औजार चित्तौड़गढ़ जिले में बेड़च व गंभीरी नदियों के तट पर, चम्बल और बामनी नदी के तट पर भैंसरोड़गढ़ व नवाघाट, बनास के तट पर हमीरगढ़, जहाजपुर, देवली व गिलूंड, लूनी नदी के तट पर पाली, समदडी, टोंक जिले में भरनी आदि अनेक स्थानों से प्राप्त हुए हैं। इस काल में कपास की खेती भी होने लगी थी। समाज का वर्गीकरण आरंभ हो गया था। व्यवसायों के आधार पर जाति व्यवस्था का सूत्रपात हो गया था। इस युग के उपकरण उदयपुर के बागोर तथा मारवाड़ के तिलवाड़ा नामक स्थानों पर मिले हैं। इस युग को प्रसिंद्ध पुराविद् ‘गार्डन चाइल्ड’ ने ‘पाषाणकालीन क्रान्ति’ कहा है।
बागौर सभ्यता, भीलवाड़ा
भीलवाड़ा कस्बे से 25 किलोमीटर दूर कोठारी नदी के किनारे वर्ष 1967-68 में डॉ. वीरेंद्रनाथ मिश्र, डॉ. एल.एस. लेश्निक व डेक्कन कॉलेज पूना और राजस्थान पुरातत्व विभाग के सहयोग से की गयी खुदाई में 3000 ई.पू. से लेकर 500 ई.पू. तक के काल की बागौर सभ्यता का पता लगा।
विशेषता
यहां से लघुपाषाणोपकरण, हथौड़े, गोफन की गोलियां, चपटी व गोल शिलाएं, छेद वाले पत्थर व एक कंकाल पर ईटों की दीवार जो समाधि का द्योतक है मिलती है।
यहाँ के निवासी कृषि, पशुपालन तथा आखेट करते थे।
बागौर से कृषि एवं पशुपालन के प्राचीनतम् साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
यहाँ से तांबे के पाँच उपकरण प्राप्त हुए हैं। जिनमें से एक 10.5 सेमी. लम्बी छेद वाली सुई है।
यहाँ के मकान पत्थरों से बनाये गये हैं।
भारत का सबसे संपन्न पाषाण स्थल।
ताम्रयुगीन संस्कृतियां
सर्वप्रथम मानव ने ताँबे का प्रयोग करना प्रारम्भ किया, उसके बाद मिश्रित धातु कांसे (Bronze) का एवं सबसे बाद में लोहे का। इन धातुओं के वृहद् स्तर पर प्रयोग के कारण तत्कालीन मानव सभ्यताओं का नामकरण क्रमशः ताम्रयुगीन, कांस्ययुगीन एवं लौह युगीन किया गया।
ताम्रयुगीन सभ्यताएँ | कांस्ययुगीन सभ्यता | लौहयुगीन सभ्यताएँ |
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आहड़ (उदयपुर) | कालीबंगा (हनुमानगढ़) | नोह (भरतपुर) |
गणेश्वर (नीम का थाना) | जोधपुरा (जयपुर) | |
गिलूण्ड (राजसमंद) | सुनारी (नीम का थाना) | |
झाड़ौल (उदयपुर) | रैढ़ (टॉक) | |
पिण्ड-पहाड़ियाँ (चित्तौड़गढ़) | ईसवाल (उदयपुर) | |
कुराड़ा (नागौर) | बैराठ (कोटपूतली बहरोड) | |
साबणिया व पूगल (बीकानेर) | नगरी (चित्तौड़गढ़) | |
नन्दलालपुरा (जयपुर) | बरार (श्रीगंगानगर) | |
किराडोल (जयपुर) | नलियासर (जयपुर) | |
चीथवाड़ी (जयपुर) | भीनमाल (जालौर) | |
एलाना (जालौर) | ||
बूढ़ा पुष्कर (अजमेर) | ||
काल माहोली (स. माधोपुर) | ||
मलाह (भरतपुर) | ||
बालाथल (उदयपुर) | ||
ओझियाना (भीलवाड़ा) |
आहड़ सभ्यता, उदयपुर
उदयपुर से तीन किलोमीटर दूर 500 मीटर लम्बे धूलकोट के नीचे आहड़ का पुराना कस्बा दवा हुआ है जहाँ से ताम्रयुगीन सभ्यता प्राप्त हुई है। यह सभ्यता बनास पर स्थित है। ताम्र सभ्यता के रूप में प्रसिद्ध यह सभ्यता आयड़/बेड़च नदी के किनारे मौजूद थी। प्राचीन शिलालेखों में आहड़ का पुराना नाम ‘ताम्रवती’ अंकित है। दसवीं व ग्याहरवीं शताब्दी में इसे ‘आघाटपुर’ अथवा ‘आघट दुर्ग’ के नाम से जाना जाता था। इसे ‘धूलकोट’ भी कहा जाता है। इस स्थल के उत्खनन का कार्य सर्वप्रथम 1953 में अक्षय कीर्ति व्यास के नेतृत्व में हुआ। 1956 ई. में श्री रतचंद्र अग्रवाल की देखरेख में खनन कार्य हुआ। इसके उपरांत डॉ.
एच.डी. सांकलिया, डेकन कॉलेज पूना, पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग, राजस्थान तथा मेलबोर्न विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलिया के संयुक्त अभियान में वर्ष 1961-62 के दौरान इस स्थल का उत्खनन कार्य किया गया।
विशेषता
अनाज रखने के मृद्भाण्ड प्राप्त हुए हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में गोरे व कोठ (Gore and Koth) कहा जाता है।
उत्खनन में अनाज पिसने की चक्की मिली है।
कपड़ों में छपाई किये जाने वाले छापे के साक्ष्य मिले हैं।
भवन निर्माण में पत्थर का प्रयोग।
तांबा गलाने की भट्टी मिली है।
चांदी से अपरिचित थे।
शव का सिर उत्तर दिशा में होता था।
यहां से एक भवन में छः मिट्टी के चुल्हे मिले हैं।
मिट्टी के बर्तन व तांबे के आभुषण मिले है।
यहाँ तृतीय ईसा पूर्व से प्रथम ईसा पूर्व की यूनानी तांबे की छः मुद्रायें व तीन मोहरें मिली हैं। एक मुद्रा पर एक ओर त्रिशूल तथा दूसरी ओर अपोलो देवता अंकित है जो तीर एवं तरकश से युक्त है। इस पर यूनानी भाषा में लेख अंकित है। यहां से मिलने वाली तीन मुहरों पर ‘विहितभ विस’, ‘पलितसा’ तथा ‘तातीय तोम सन’ अंकित हैं जिनका अर्थ स्पष्ट नहीं है, ये मुद्राएं तृतीय शताब्दी ईसा पूर्व से प्रथम ईस्वी तक की हैं। इससे इतना तो स्पष्ट है कि उस युग में राजस्थान का व्यापार विदेशों से था।
यहाँ से टेराकोटा वृषभ आकृतियां मिली हैं, जिन्हें ‘बनासियन बुल’ कहा गया है।
रंगमहल, हनुमानगढ़
सन् 1952 से 1954 के बीच लुण्ड विश्वविद्यालय के स्वीडिश दल द्वारा पुरातत्व शास्त्री हन्ना राईड व होलगर अर्बमेन व के. एरिस्किन के नेतृत्व में रंगमहल के टीलों की खुदाई की गयी। इस खुदाई से ज्ञात हुआ है कि प्रस्तर युग से लेकर छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व तक यह क्षेत्र पूर्णतः समृद्ध था। यही कारण है कि यहाँ से प्रस्तरयुगीन एवं धातुयुगीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहाँ से सिंधुघाटी सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
विशेषता
यहां कनिष्क प्रथम व कनिष्क तृतीय की मुद्रा पंचमार्क के सिक्के मिले हैं।
रंगमहल से 105 तांबे के सिक्के मिले।
गांधार शैली की मूर्तियां मिली हैं।
बालाथल, उदयपुर
सन् 1993 में वी.एन. मिश्र द्वारा ई.पू. 3000 से लेकर ई.पू. 2500 तक की ताम्रपाषाण युगीन संस्कृति के बारे में पता चला है। बालाथल उदयपुर जिले की वल्लभनगर तहसील में स्थित है।
विशेषता
यहाँ के लोग भी कृषि, पशुपालन एवं आखेट करते थे।
ये लोग मिट्टी के बर्तन बनाने में निपुण थे तथा कपड़ा बुनना जानते थे।
यहाँ से तांबे के सिक्के, मुद्रायें एवं आभूषण प्राप्त हुए हैं।
भवन निर्माण में पत्थर के साथ ईंटो का प्रयोग किया गया है।
यहाँ से एक दुर्गनुमा भवन भी मिला है तथा ग्यारह कमरों वाला विशाल भवन भी प्राप्त हुआ है।
यहां से 4000 वर्ष पुराना एक कंकाल मिला है जिसे भारत में कुष्ठ रोग का सबसे पुरातन प्रमाण माना जाता है।
योगी मुद्रा में शवाधान प्राप्त हुआ है।
गिलूण्ड, राजसमंद
सन् 1957-58 में प्रो. बी.बी. लाल ने गिलूण्ड (राजसमन्द) पुरास्थल का उत्खनन किया।
विशेषता
5 प्रकार के मृदभाण्ड(मिट्टी के बर्तन)
हाथी दांत की चूड़ियां मिली है।
गणेश्वर, नीम का थाना
गणेश्वर का टीला, नीम का थाना में कांतली नदी के उद्गम स्थल पर अवस्थित है। गणेश्वर में रत्नचंद्र अग्रवाल ने 1977 में खुदाई कर इस सभ्यता पर प्रकाश डाला। इस क्षेत्र का विस्तृत उत्खनन कार्य 1978-89 के बीच विजय कुमार ने किया। डी.पी. अग्रवाल ने रेडियो कार्बन विधि एवं तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर इस स्थल की तिथि 2800 ईसा पूर्व निर्धारित की है अर्थात् गणेश्वर सभ्यता पूर्व-हड़प्पा कालीन सभ्यता है। ताम्रयुगीन सांस्कृतिक केन्द्रों में से प्राप्त तिथियों में यह प्राचीनतम् है। इस प्रकार गणेश्वर संस्कृति को निर्विवाद रूप से ‘भारत में ताम्रयुगीन सभ्यताओं की जननी’ माना जा सकता है।
विशेषताएं
मछली पकड़ने का कांटा मिला है।
ताम्र निर्मित कुल्हाड़ी मिली है।
शुद्ध तांबे निर्मित तीर, भाले, तलवार, बर्तन, आभुषण, सुईयां मिले हैं।
यहां से तांबे का निर्यात भी किया जाता था। सिंधु घाटी के लोगों को तांबे की आपूर्ति यहीं से होती थी।
ओझियाना, भीलवाड़ा
आहड़ संस्कृति से सम्बन्धित पुरास्थल ओझियाना भीलवाड़ा जिले में स्थित है। इस पुरास्थल का उत्खनन सन् 1999-2000 में किया गया था।
विशेषताएं
जहां आहड़ सभ्यता के अन्य स्थल नदी के किनारे फले फूले वहीं यह पहाड़ी पर अवस्थित है।
यहाँ की पुरा सामग्री में वृषभ (ओझियाना बुल) एवं गाय की मृण्यमय मूर्तियां मिली है जिन पर सफेद रंग से डिजाइन बनायी गई है।
यहाँ से कार्नेलियन, फियांस तथा पत्थर के मनके, शंख एवं ताम्र की चूड़ियाँ तथा अन्य आभूषण भी मिले हैं।
कांस्ययुगीन सभ्यताएं
कालीबंगा, हनुमानगढ़
कालीबंगा प्राचीन सरस्वती नदी के बाएं तट पर जिला मुख्यालय हनुमानगढ़ से लगभग 25 किमी. दक्षिण में स्थित है। वर्तमान में यहाँ घग्घर नदी बहती है। कालीबंगा में पूर्व हड़प्पाकालीन, ‘हड़प्पाकालीन’ तथा ‘उत्तर हड़प्पाकालीन’ सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं। खुदाई के दौरान मिली काली चूड़ियों के टुकड़ों के कारण इस स्थान को कालीबंगा कहा जाता है क्योंकि पंजाबी में बंगा का अर्थ चूड़ी होता है। इस स्थान का पता ‘पुरातत्व विभाग के निदेशक ए. एन. घोष’ ने सन् 1952 में लगाया था। सन् 1961-69 तक नौ सत्रों में बी. के. थापर, जे. वी. जोशी तथा बी. बी. लाल के निर्देशन में इस स्थल की खुदाई की गयी। कालीबंगा स्वतंत्र भारत का वह पहला पुरातात्विक स्थल है जिसका स्वतंत्रता के बाद पहली बार उत्खनन किया गया तत्पश्चात् रोपड़ का उत्खनन किया गया।
विशेषताएं
हरियाणा में राखीगढ़ी एवं गुजरात में धौलावीरा के बाद राजस्थान में कालीबंगा देश का तीसरा सबसे बड़ा पुरातात्विक स्थल है।
यह नगर दो भागों में विभाजित है और दोनों भाग सुरक्षा दिवार(परकोटा) से घिरे हुए हैं।
कालीबंगा का एक फर्श पूरे हड़प्पा काल का एकमात्र ऐसा उदाहरण है जहां अलंकृत ईटों का प्रयोग हुआ है। इस पर प्रतिच्छेदी वृत्त का अलंकरण है।
संस्कृत साहित्य में उल्लिखित ‘बहुधान्यदायक क्षेत्र’ यही था। घग्गर नदी के बायें किनारे पर स्थित खेत तीसरी सहस्त्राब्दी ई. पू. के हैं।
संसार भर में उत्खनन से प्राप्त खेतों में यह पहला है। इस खेत में दो तरह की फसलों को एक साथ उगाया जाता था, कम दूरी के सांचों में चना व अधिक दूरी के सांचों में सरसों बोई जाती थी। खेत में ‘ग्रिड पैटर्न’ की गर्तधारियों के निशान है और ये दो तरह के निशान एक दूसरे के समकोण पर बने हुए है।
कालीबंगा से मिली माटी की वृषभाकृति तो कलाकौशल की दृष्टि से विशेषरूप से उल्लेखनीय है। इस वृषभ की यह विशेषता है कि इसका सिर इस तरह बनाया गया है कि आवश्यकतानुसार उसे धड़ से अलग किया जा सकता है और उसे पुनः धड़ से जोड़ा जा सकता है।
कालीबंगा से प्राप्त बेलनाकार मुहरें मेसोपोटामिया की मुहरों जैसी है।
लकड़ी से बनी नाली के साक्ष्य प्राप्त हुए है।
यहां से ईटों से निर्मित चबुतरे पर सात अग्नि कुण्ड प्राप्त हुए है जिसमें राख एवम् पशुओं की हड्डियां प्राप्त हुई है।
यहां से ऊंट की हड्डियां प्राप्त हुई है, ऊंट इनका पालतु पशु है।
यहां से सुती वस्त्र में लिपटा हुआ ‘उस्तरा’ प्राप्त हुआ है।
यहां से कपास की खेती के साक्ष्य प्राप्त हुए है।
जले हुए चावल के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
युगल समाधी के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
यहां से मिट्टी से निर्मिट स्केल(फुटा) प्राप्त हुआ है।
यहां से शल्य चिकित्सा के साक्ष्य प्राप्त हुआ है। एक बच्चे का कंकाल मिला है।
भूकम्प के साक्ष्य मिले हैं।
यह माना जाता है कि संभवतः घग्घर नदी के सूखने से कालीबंगा का विनाश हुआ।
वाकणकर महोदय के अनुसार – सिंधु घाटी सभ्यता को सरस्वती नदी की सभ्यता कहना चाहिए क्योंकि सरस्वती नदी के किनारे 200 से अधिक नगर बसे थे।
यदि हड़प्पा और मोहनजोदड़ों को सैंधव सभ्यता की दो राजधानियां माना जा सकता है तो दशरथ शर्मा के अनुसार कालीबंगा को सैंधव सभ्यता की तीसरी राजधानी कहा जा सकता है।
लौहयुगीन संस्कृति
नोह, भरतपुर
नोह के काले एवं लाल मृद्पात्रों के स्तर से लोहे की उपस्थिति के कुछ प्रमाण मिले हैं। यद्यपि यह साक्ष्य लोहे के छोटे-छोटे टुकड़ों के रूप में हैं, तथापि यह भारत में लौह युग के प्रारम्भ की प्राचीनतम् सीमा रेखा निर्धारण का सूचक है। इस सभ्यता के पश्चात् एक नई सभ्यता का आविर्भाव हुआ जिसे सलेटी रंग की चित्रित मृद्भाण्ड संस्कृति का नाम दिया गया है।
बैराठ, कोटपूतली बहरोड
इस स्थल की प्रांरंभिक और सर्वप्रथम खोज का कार्य 1837 ई. में कैप्टन बर्ट द्वारा किया गया। इन्होंने विराटनगर में मौर्य सम्राट अशोक का प्रथम भाब्रू शिलालेख खोज निकाला और यह 1840 ई. से एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल, कलकत्ता संग्रहालय में सुरक्षित है। इसे ‘भाब्रू शिलालेख’ और ‘बैराठ-कलकत्ता शिलालेख’ कहा जाता है। कैप्टन किटोई ने इसका लिथेग्राफ तैयार कर इसका लिप्यान्तरण और अनुवाद किया। जिनसे अशोक की बुद्ध-धम्म और संघ में अगाधनिष्ठा परलक्षित होती है। डॉ. कनिंघम ने 1864-65 में इस अध्ययन को आगे बढ़ाया। 1871-72 ई. में कनिंघम के सहायक डॉ. कार्लाइल ने पुनः इस क्षेत्र का निरीक्षण किया। इन्होंने भीमसेन की पहाड़ी में अशोक का दूसरा शिलालेख खोज निकाला। इस लेख का सम्पादन बुहलर और सेर्नाट ने किया था। 1910 ई. में डॉ. डी.आर. भण्डारकर ने इस क्षेत्र का विस्तृत अध्ययन व सूक्ष्म परीक्षण किया।
प्राचीन मत्स्य जनपद की राजधानी विराटनगर (वर्तमान बैराठ) में ‘बीजक की पहाड़ी’, ‘भीमजी की डूँगरी’ मोती डूंगरी तथा ‘महादेवजी की डूँगरी’ आदि स्थानों पर उत्खनन कार्य दयाराम साहनी द्वारा 1936-37 में तथा पुनः 1962-63 में पुरातत्वविद् नीलरत्न बनर्जी तथा कैलाशनाथ दीक्षित द्वारा किया गया।
विशेषताएं
1. महाजन पद संस्कृति के साक्ष्य (600 ईसा पुर्व से 322 ईसा पुर्व तक)
मत्स्य जनपद की राजधानी – विराटनगर
(मत्स्य जनपद – जयपुर, अलवर, भरतपुर)
विराटनगर – बैराठ का प्राचीन नाम है।
2. महाभारत संस्कृति के साक्ष्य
पाण्डुओं ने अपने 1 वर्ष का अज्ञातवास विराटनगर के राजा विराट के यहां व्यतित किया था।
3. बौद्धधर्म के साक्ष्य मिले हैं।
वर्ष 1999 में बीजक की पहाड़ी से अशोककालीन ‘गोल बौद्ध मंदिर’, ‘स्तूप’ एवं ‘बौद्ध मठ’ के अवशेष मिले हैं जो हीनयान संप्रदाय से संबंधित हैं, ये भारत के प्राचीनतम् मंदिर माने जा सकते हैं।
यहां पर स्वर्ण मंजूषा(कलश) मिली है जिसमें भगवान बुद्ध की अस्थियों के अवशेष मिले हैं।
4. मौर्य संस्कृति के साक्ष्य मिले हैं।
मौर्य समाज – 322 ईसा पुर्व से 184 ईसा पुर्व
सम्राट अशोक का भाब्रु शिलालेख बैराठ से मिला है।
भाब्रु शिलालेख की खोज – 1837 कैप्टन बर्ट
इसकी भाषा – प्राकृत भाषा
लिपी – ब्राह्मणी
वर्तमान में भाब्रु शिलालेख कोलकत्ता के संग्रहालय में सुरक्षित है।
5. हिन्द – युनानी संस्कृति के साक्ष्य मिले है।
यहां से 36 चांदी के सिक्के प्राप्त हुए हैं 36 में से 28 सिक्के हिन्द – युनानी राजाओं के है। 28 में से 16 सिक्के मिनेण्डर राजा(प्रसिद्ध हिन्द – युनानी राजा) के मिले हैं।
शेष 8 सिक्के प्राचीन भारत के सिक्के आहत(पंचमार्क) है।
ऐसा माना जाता है कि हूण आक्रान्ता मिहिरकुल ने बैराठ का विध्वंस कर दिया था।
चीनी यात्री युवानच्वांग ने भी अपने यात्रा वृत्तान्त में बैराठ का उल्लेख किया है।
नोट – भारत में सोने के सिक्के हिन्द – युनानी राजाओं ने चलाये थे।
ईसवाल, उदयपुर
ईसवाल उदयपुर जिले की एक प्राचीन औद्योगिक बस्ती है। राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर के पुरातत्व विभाग के तत्वाधान में यहाँ खुदाई की जा रही है।
विशेषताएं
यहाँ से दो हजार वर्ष तक निरन्तर लौहा गलाने के प्रमाण मिले हैं।
यहाँ मकान प्रस्तर खण्ड़ों से निर्मित हैं, जिन्हें मिट्टी के गारे से जोड़ा गया है।
उत्खनन से लौह मल, लौह अयस्क, मिट्टी में प्रयुक्त होने वाले पाईप भी मिले हैं।
उत्खनन से प्राप्त अवशेषों से यह अनुमान लगाया जाता है कि पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व के लगभग यहाँ लौहा गलाने का कार्य प्रारम्भ हो गया था।
मौर्य साम्राज्य व शुंग, कुषाण काल में यहाँ लौहा गलाने की गतिविधियां संचालित होती थी।
यहाँ से मिले सिक्के को प्रारंभिक कुषाणकालीन माना जाता है।
रैढ़(टाटानगर ), टोंक
ढील नदी के किनारे स्थित रैढ़ में उत्खनन कार्य सर्वप्रथम जयपुर की ओर से बहादुर दयाराम साहनी MACIE, पुरातत्व और ऐतिहासिक अनुसंधान के निदेशक ने 1938 से 1940 तक किया। इसको अंतिम रूप डॉ. केदारनाथ पुरी ने दिया। उत्खनित क्षेत्र का विवरण के.एन. पुरी ने जयपुर शासन के तत्वाधान में ‘एस्केवैशनएट रैढ़’ में प्रकाशित किया।
विशेषताएं
रैढ़ एक समृद्ध नगर रहा है और यहां आलीशान इमारतों के अवशेष भी उत्खनित स्थल पर पाये गये हैं।
रैढ़ के उत्खनन में विभिन्न प्रकार के मिट्टी के बर्तन पाये गये हैं। यहां पर पाये गये सभी मृद्भाण्ड चक्र (पहिये) से निर्मित है।
रैढ़ के मृद्भाण्ड परम्परा सम्भवतः 500-300 ई.पू. से 200 ई. के मध्य की है।
हल्के गुलाबी रंग में मिट्टी से बना एक संकीर्ण गर्दन का फूलदान रैढ़ के उत्खनन में पाया गया है जो यहां पाये गये मृद्भाण्डों में श्रेष्ठतम उदाहरण है।
पाषाण निर्मित बर्तन ज्यादातर सेलखड़ी पत्थर से बने होते थे।
अशोक तकनीक में पालिश किया हुआ चुनार बलूआ पत्थर का एक बड़ा प्याला भी मिला है जो सम्भवतः बाहर से आयात किया हुआ है।
रैढ़ से प्राप्त यक्षणी की एक प्रतिमा जो मृतिका की ढली हुई मूर्तियों में से सर्वोत्कृष्ट उदाहरण का प्रतिनिधित्व करती है। यह सम्भवतः शुंग काल (ईसा की दूसरी सदी पूर्व) की मानी गयी है। इसकी समानता भरहुत स्तूप पर लगी यक्षणी आकृति से की गयी है।
रैढ़ के उत्खनन में बड़ी मात्रा में विभिन्न प्रकार के लौह उपकरण और औजार पाये गये हैं। इसी कारण इस स्थल को ‘प्राचीन राजस्थान का टाटानगर’ भी कहा गया है।
यहां से प्राप्त सामग्री में तलवार, ब्लेड, भाला, छोटे छुर्रे, चाकू, तीर, हंसिया कुल्हाड़ी, दरवाजा फिटिंग, चाबियां, अंगूठियां, दरवाजा आदि पाये गये हैं।
रैढ़ के उत्खनन में 3075 आहत मुद्रा या पंचमार्क सिक्के भी पाये गये हैं। (एशिया का सबसे बड़ा सिक्कों का भण्डार)
रैढ़ से आहत मुद्रा के अतिरिक्त 300 मालव जनपद के सिक्के, 14 मित्र सिक्के, 6 सेनापति सिक्के, 7 वपु सिक्के, एक अपोलोडोट्स का सिक्का, 189 अज्ञात ताम्र सिक्के और इण्डो-सेसेनियन सिक्के प्रमुख है।
रैढ़ के उत्खनन में यवन सिक्कों में यूनानी शासक अपोलोडोट्स का एक खण्डित सिक्का मिला है।
नगर, टोंक
नगर की खुदाई पुरातत्त्ववेत्ता कृष्णदेव की देख-रेख में हुयी थी। नगर में के.वी. सौन्दरराजन ने पुनः उत्खनन करवाया था।
विशेषताएं
इसे ‘कार्कोट नगर’ भी कहा जाता रहा है।
शुंग युगीन श्वेत फलास्तर के समान मिट्टी से बनी फलकों पर कामदेव-रति, इन्द्र-इद्राणी आदि अद्वितीय है।
‘नगर’ की खुदाई में 6000 मालव सिक्के, एक हजार से अधिक पात्रों के टुकड़े तथा लगभग 500 अन्य छोटे-छोटे अवशेष प्राप्त हुए हैं।
यहाँ के पात्रों पर मानव तथा पशु आकृतियाँ मिलती हैं।
नगर से गुप्तोत्तरकालीन स्लेटी पत्थर से बनी महिषासुरमर्दिनी की प्रतिमा, पत्थर पर मोदक रूप में गणेश का अंकन, तीन फणधारी नाग का अंकन तथा कमल धारण किए हुए लक्ष्मी की खड़ी प्रतिमा मिली हैं।
ये सभी सामग्री नगर को मालवों के अधीन एक क्षेत्र घोषित करती है।
नोह, भरतपुर
भरतपुर जिले में स्थित नोह गाँव में 1963-64 ई. में श्री रतनचन्द्र अग्रवाल के निर्देशन में की गई खुदाई में लौह युगीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं।
रेडियो कार्बन तिथि के आधार पर यह सभ्यता 1100 ई.पू. से 900 ई.पू. की मानी गई है।
विशेषताएं
यहाँ से प्रस्तर की विशालकाय यक्ष प्रतिमा और चुनार के चिकने पत्थर के कुछ टुकड़े प्राप्त हुए हैं जिन पर मौर्यकालीन पॉलिस है।
एक पात्र में ब्राह्मी लिपि में चारों ओर लेख अंकित है। इसके द्वारा सबसे महत्वपूर्ण जानकारी हमें यह मिली है कि भारतवर्ष में ईसा पूर्व 12वीं शताब्दी में लोहे का प्रयोग ज्ञात था।
भीनमाल, जालौर
जालौर जिले में स्थित भीनमाल में 1953-54 ई. में रतनचन्द्र अग्रवाल के निर्देशन में खुदाई कार्य किया गया।
खुदाई में मृद्भाण्ड तथा शक क्षत्रपों के सिक्के मिले हैं, जिनसे अनुमान लगाया जाता है कि द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में यहाँ सांस्कृतिक जीवन का उदय हुआ।
यहाँ के मृद्पात्रों पर विदेशी प्रभाव मिलता है। यहाँ से यूनानी दुहत्थी सुराही भी मिली है।
सुनारी, (नीम का थाना)
नीम का थाना जिले की खेतड़ी तहसील के सुनारी में कांटली नदी के तट पर खुदाई में अयस्क से लौहा बनाने की भट्टियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। ये भारत की प्राचीनतम भट्टियाँ मानी जाती हैं। इन भट्टियों में धोंकनी लगाने का प्रावधान था, जिससे तापक्रम नियंत्रित किया जाता था।
यहाँ से लोहे के तीर, भाले के अग्रभाग, लौहे का कटोरा तथा कृष्ण परिमार्जित मृद्पात्र भी मिले हैं जो मौर्ययुगीन माने जाते हैं। यहाँ से मिट्टी तथा पत्थर के मनके, शंख की चूड़ियाँ तथा मृणमूर्तियाँ भी मिली हैं।
ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि यहाँ की बस्ती वैदिक आर्यों ने बसाई थी।
यहाँ से मातृदेवी की मृणमूर्तियाँ भी मिली हैं तथा धान संग्रहण का कोठा भी मिला है।
नगरी, चित्तौड़गढ़
चित्तौड़गढ़ के पास स्थित नगरी को पाणिनी की अष्टाध्यायी में उल्लिखित ‘माध्यमिका’ माना जाता है। जो बेड़च नदी के तट पर स्थित था। नगरी शिवि जनपद की राजधानी रही है। 1872 ई. में कार्लाइल द्वारा इसकी खोज की गई। 1919-20 ई. में डी.आर. भंडारकर एवं 1961-62 ई. में के.बी. सौन्दर राजन द्वारा यहाँ उत्खनन करवाया गया।
विशेषताएं
यहाँ के उत्खनन से प्रचूर संख्या में शिवि जनपद के सिक्के प्राप्त हुए है साथ ही कुषाणकालीन स्तरों में नगर की सुरक्षा के निमित्त एक मजबूत दिवार भी बनाई गई थी।
यहाँ से चार चक्राकार कुएँ एवं गुप्तयुगीन अवशेष भी मिले हैं।
जोधपुरा, जयपुर
जयपुर जिले में साबी नदी तट पर जोधपुरा गाँव में 1972-75 ई. में उत्खनन में जोधपुर सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए। यह सभ्यता 2500 ईसा पूर्व से 200 ईस्वी के मध्य फली फूली।
विशेषताएं
स्लेटी रंग के चित्रित मृद्पात्र पानी पीने के पात्र, कटोरे तथा तश्तरियों के अवशेष मिले हैं।
यहाँ से लोहे के शस्त्र, लोहे के बने तीरों के अग्रभाग, लोहे की कीलें, शंख निर्मित चूड़ियों के टुकड़े, कुबड़बैल की आकृतियाँ तथा मिट्टी एवं पत्थर के मनके मिले हैं।
जोधपुरा से लोहा गलाने की भट्टियाँ भी मिली हैं।
अन्य सभ्यता
धौलीमगरा- उदयपुर
आयड़ सभ्यता का नवीनतम स्थल
चंद्रावती सभ्यता – सिरोही
गरूड़ासन पर विराजित विष्णु भगवान की मुर्ति मिली है।
कर्नल जेम्स टोड ने भी इस सभ्यता का जिक्र अपनी पुस्तक में किया है।
गरदड़ा – बूंदी
छाजा नदी
प्रथम बर्ड राइ
डर राॅक पेंटिंग के शैल चित्र मिले हैं। यह देश में प्रथम पुरातत्व महत्व की पेंन्टिंग है।
तथ्य
पुरातात्वविद ओमप्रकाश कुक्की ने बूंदी से भीलवाड़ा तक 35 किमी. लंबी विश्व की सबसे लंबी शैलचित्र श्रृंखला खोजी है। भीलवाड़ा के गैंदी का छज्जा स्थान की गुफाओं में ये शैल चित्र मिले हैं।
सोंथी – बीकानेर
उत्खन्न कर्ता – अमला नंद घोष
कालीबंगा प्रथम के नाम से विख्यात।
नगरी – चित्तौड़गढ़
नगरी का प्राचीन नाम – मध्यमिका
गुप्तकाल के अवशेष।
शिवी जनपद के सिक्के मिले हैं।
जहाजपुरा – भीलवाड़ा
महाभारत कालिन अवशेष मिले हैं।
नलियासर – जयपुर
सांभर के निकट।
चौहान युग से पहले के अवशेष।
डडीकर – अलवर
पांच से सात हजार साल पुराने शैल चित्र मिले हैं।
तथ्य
करणपुरा(नोहर) नवीनतम स्थल
प्राचीन संभ्यताएं | जिला |
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बरोर, डेरा तरखानवाला | गंगानगर |
रंगमहल, करणपुरा, बडोपल | हनुमानगढ़ |
ओला और कुण्डा | जैसलमेर |
नोह,दर | भरतपुर |
जोधपुरा,चीथवाड़ी | जयपुर |
ओझियाणा | भीलवाडा |
डोडोथोरा | बीकानेर |
गदरड़ा | बूंदी |
पूगल, डाडाथोरा | बीकानेर |
ओला, कुण्डा | जैसलमेर |
औसिया | जोधपुर |
कुराड़ा | नागौर |
एलाना | जालौर |
झाड़ोल | उदयपुर |