1. मीणा
निवास स्थान- जयपुर के आस-पास का क्षेत्र/पूर्वी क्षेत्र
“मीणा” का शाब्दिक अर्थ मछली है। “मीणा” मीन धातु से बना है।
मीणा जनजाति के गुरू आचार्य मुनि मगन सागर है।
मीणा पुराण- आचार्य मुनि मगन सागर द्वारा रचित मीणा जनजाति का प्रमुख ग्रन्थ है।
जनजातियों में सर्वाधिक जनसंख्या वाली जनजाति है।
बाहुल्य क्षेत्र – जयपुर है।
मीणाओं का कुल देवता भूरिया बाबा/गोतमेश्वर है।
मीणा जाति के लोग जीणमाता (रेवासा, सीकर) को अपनी कुल देवी मानते है।
जयपुर में कछवाहा वंश का शासन प्रारम्भ होने से पूर्व आमेर में मीणाओं का शासन था।
जनजातियों में सबसे सम्पन्न तथा शिक्षित जनजाति मीणा है।
मीणा वर्ग
चौकीदार मीणा:- राजकीय खजाने की सुरक्षा करने वाले।
जमीदार मीणा:- खेती व पशुपालन का कार्य करने वाले।
चर्मकार मीणाः- चमडे़ से संबंधित व्यवसाय करने वाले।
पडिहार मीणा:- भैंसे का मांस खाने वाले (टोंक व बूंदी क्षेत्र में रहते है।)
रावत मीणाः- स्वर्ण राजपूतों से संबंध रखने वाले
सुरतेवाला मीणाः- अन्य जातियों से वैवाहिक संबंध रखने वाले।
मीणा जाति के गांव ढाणी कहलाते है।
गांव का मुखिया पटेल कहलाता है।
भूरिया बाबा का मेला अरणोद (प्रतापगढ़) में वैषाख पूर्णिमा को आयोजित होता है।
जीणमाता का मेला रेवासा (सीकर) में नवरात्रों के दौरान आयोजित होता है।
चौरासी – मीणा जाति की सबसे बड़ी पंचायत चौरासी पंचायत होती है।
बुझ देवता:- मीणा जाति के देवी-देवताओं को बुझ देवता कहते है।
नाता (नतारा) प्रथा:- इस प्रथा में विवाहित स्त्री अपने पति, बच्चो को छोड़कर दूसरे पुरूष से विवाह कर लेती है।
छेडा फाड़ना – तलाक की प्रथा है, जिसके अन्तर्गत पुरूष नई साड़ी के पल्लू में रूपया बांधकर उसे चैड़ाई की तरफ से फाड़कर पत्नी को पहना देता हैं। ऐसी स्त्री को समाज द्वारा परित्याकता माना जाता है।
झगडा राशि:- जब कोई पुरूष किसी दूसरे पुरूष की स्त्री को भगाकर ले जाता है तो झगडा राशि के रूप में उसे जुर्माना चुकाना पड़ता हैं जिसका (झगडा राशि का) निर्धारण पंचायत द्वारा किया जाता है।
2. भील
भीलों का मुख्य निवास स्थान भौमट क्षेत्र (उदयपुर) है।
भील शब्द की उत्पति “बील” (द्रविड़ भाषा का शब्द) से हुई है जिसका अर्थ “कमान” है।
इतिहासकार कर्नल टाॅड ने भीलों को “वनपुत्र” कहा है।
इतिहासकार टाॅलमी ने भीलों को फिलाइट(तीरंदाज ) कहा है।
जनसंख्या की दृष्टि से मीणा जनजाति के बाद दूसरे नम्बर पर है।
भील राजस्थान की सबसे प्राचीन जनजाति है।
भीलों के घरों को “कू’ कहा जाता है।खनिज संसाधन(GURUGGKWALA) भीलों के घरों को टापरा भी कहा जाता है। भीलों की झोपडियों के समुह को “फला ” कहते है। भीलों के बडे़ गांव पाल कहलाते है।
गांव का मुखिया गमेती/पालती कहलाते है।
वस्त्र
ठेपाडा/ढेपाडा -भील पुरूषों की तंग धोती।
खोयतू- भील पुरूषों की लंगोटी।
फालूः- भील पुरूषों की साधारण धोती।
पोत्याः- भील पुरूषों का सफेद साफा
पिरियाः- भील जाति की दुल्हन की पीले रंग की साड़ी।
सिंदूरी:- लाल रंग की साड़ी सिंदूरी कहलाती है।
कछावूः- लाल व काले रंग का घाघरा
मेले
बेणेश्वर मेला (डूंगरपुर)-माघ पूर्णिमा को भरता है।
घोटिया अम्बा का मेला (बांसवाडा) चैत्र अमावस्या को भरता है।
यह मेला “भीलों का कुम्भ”कहलाता है।
भीलों का गौत्र अटक कहलाता है।
भील बाहुल्य क्षेत्र भौमट कहलाता है।
संख्या की दृष्टि से सर्वाधिक भील बांसवाडा जिले में निवास करते हैं
भीलों में प्रचलित मृत्यु भोज की प्रथा काट्टा कहलाती हैं।
केसरिया नाथ जी/आदिनाथ जी /ऋषभदेव जी/काला जी के चढ़ी हुई केसर का पानी पीकर कभी झूठ नहीं बोलते।
भीलों के लोकगीत
1.सुवंटिया – (भील स्त्री द्वारा)
2.हमसीढ़ो- भील स्त्री व पुरूष द्वारा युगल रूप में
भीलों के विवाह
1.हरण विवाह
लड़की को भगाकर किया जाने वाला विवाह।
2.परीक्षा विवाह
इस विवाह में पुरूष के साहस का प्रदर्शन होता है।
3.क्रय विवाह(दापा करना)
वर द्वारा वधू का मूल्य चुकाकर किया जाने वाला विवाह।
4.सेवा विवाह
श्शादी से पूर्व लड़का अपने भावी सास-ससुर की सेवा करता है।
5.हठ विवाह
लड़के तथा लड़की द्वारा भाग कर किया जाने वाला विवाह
प्रथाएं
1.हाथी वेडो
भीलों में प्रचलित विवाह की प्रथा, जिसके अन्तर्गत बांस, पीपल या सागवान वृक्ष के समक्ष फेरे लिये जाते है। इसमें वर को हरण तथा वधू को लाडी कहते है।
2.भंगोरिया उत्सव
भीलों में प्रचलित उत्सव जिसके दौरान भील अपने जीवनसाथी का चुनाव करते है।
खेती
1.झुमिंग कृषि
पहाडों पर वनों को काटकर या जलाकर भूमि साफ की जाने वाली कृषि जिसे चिमाता भी कहते है।
2.वालर/दाजिया
मैदानी भागों को साफ कर की जाने वाली कृषि।
भीलों के कुल देवता टोटम देव है।
भीलों की कुल देवी आमजा माता/केलड़ा माता (केलवाडा- उदयपुर) है।
फाइरे-फाइरे-भील जाति का रणघोष है।
3.नृत्यः- गवरी/राई, गैर, द्विचकी, हाथीमना, घुमरा
4.कांडीः- भील कांडी शब्द को गाली मानते है।
5.भराड़ीः -भील जाति में वैवाहिक अवसर पर जिस लोक देवी का भित्ति चित्र बनाया जाता है, की भराड़ी कहते है।
3. गरासिया
गरासिया जनजाति मुख्यतः सिरोही जिले की आबुरोड़ व पिण्डवाड़ा तहसीलों में निवास करती है।
गरासियों के घर “घेर” कहलाते है।
गरासियों के गांव “फालिया” कहलाते है।
गांव का मुखिया ” सहलोत” कहलाता है।
सोहरी- अनाज संग्रहित करने की कोठियां सोहरी कहलाती है।
कांधियाः- गरासिया जनजाति में प्रचलित मृत्युभोज की प्रथा है।
हरीभावरीः- गरासिया जनजाति द्वारा सामुहिक रूप से की जाने वाली कृषि।
हेलरूः- गरासिया जनजाति के विकास के लिए कार्य करने वाली सहकारी संस्था हेलरू कहलाती है।
गरासिया जनजाति के लोग एक से अधिक पत्नियां सम्पन्नता का प्रतीक मानते है।
गरासिया जनजाति मोर को अपना आदर्श पक्षी मानती है।
हुरे- गरासिया जाति के लोग मृतक व्यक्ति की स्मृति जो मिट्टी का रूमारक बनाते है, उसे हुरें कहते है।
गरासिया जाति के लोग मृतक व्यक्ति की अस्थियों का विसर्जन नक्की झील (माउंट आबु) में करते है।
गौर का मेला/अन्जारी का मेला गरासियों का प्रमुख है जो सिरोही में वैषाख पूर्णिमा को भरता है।
मनखांरो मेलो-चैपानी क्षेत्र- गुजरात
विवाह
अ. मोर बांधिया विवाह
सामान्य रूप से हिन्दू रीति-रिवाज के अनुसार हेाने वाले विवाह।
ब. पहरावणा विवाह
ऐसा विवाह जिसमें फेरे नहीं लिए जाते है।
स. तणना विवाह
लड़की को भगाकर किया जाने वाला विवाह
नृत्य
वालर, लूर, कूद, जवारा, मांदल, मोरिया
4. सहरिया
राज्य की सबसे पिछड़ी जनजाति जिसे भारत सरकार ने आदिम जनजाति (पी.टी.जी) में शामिल किया गया है। यह जाति राज्य में बांरा जिले की शहबाद व किशनगंज तहसीलों में निवास करती है।
इस जनजाति में भीख मांगना वर्जित हैं
सहरिया जनजाति में लड़की का जन्म शुभ माना जाता है।
टापरी- सहरियों के मिट्टी ,पत्थर, लकडी, और घासफूस के बने घरों को टापरी कहते है।
टोपा (गोपना, कोरूआ)- घने जंगलों में पेड़ों पर या बल्लियों पर जो मचाननुमा झोपड़ी बनाते है, को कहते है।
सहरियों की बस्ती को सहराना कहा जाता है।
सहरिया जनजाति के मुखिया को कोतवाल कहा जाता हैं
सहरिया जनजाति के गांव सहरोल कहलाते है।
कुसिला- सहरिया जनजाति में अनाज संग्रह हेतु मिट्टी से निर्मित कोठियां कुसिला कहलाती है।
भडे़री- आटा संग्रह करने का पात्र भडेरी कहलाता है।
सहरिया जनजाति के कुल देवता तेजा जी व कुल देवी कोडिया देवी कहलाती है।
सहरिया जनजाति के गुरू महर्षि वाल्मिकी है।
सहरिया जनजाति की सबसे बड़ी पंचायत चैरसिया कहलाती है।
जिसका आयोजन सीता बाड़ी नामक स्थान पर वाल्मिकी जी के मंदिर में होता है।
वस्त्र
अ. सलुकाः- पुरूषों की अंगरखी है।
ब. खपटाः- पुरूषों का साफा हैं।
स. पंछाः- पुरूषों की धोती है।
मेलें
1.सीताबाड़ी का मेला (बांरा)
वैषाख अमावस्या को सीता बाडी नामक स्थान पर भरता है।
यह मेला हाडौती आंचल का सबसे बडा मेला है।
इस मेले को सहरिया जनजाति का कुंभ कहते है।
2.कपिल धारा का मेला (बांरा)
यह मेला कार्तिक पूर्णिमा को आयोजित होता है।
नृत्यः-
शिकारी नृत्य
5. कंजर
यह जनजाति राज्य में हाडौती क्षेत्र में निवास करती है।
‘कंजर’ शब्द “काननचार” से उत्पन्न हुआ है जिसका शब्दिक अर्थ है जंगल में विचरण करने वाला।
कंजर जनजाति अपराध प्रवृति के लिए कुख्यात है।
कंजर जनजाति के लोग मृतक व्यक्ति के मुख में शराब की बूंदे डालते है।
पाती मांगना
कंजर जनजाति के लोग अपराध करने से पूर्व अपने अराध्य देव का आशीर्वाद प्राप्त करते है, जिसे पाती मांगना कहते है।
कंजर जनजाति के लोग हाकम राजा का प्याला पीकर कभी झूठ नहीं बोलते।
कंजर जनजाति के कुल देवता हनुमान जी तथा कुल देवी चैथ माता है।
मेला
चौथ माता का मेला (चौथ का बरवाड़ा -सवाईमाधोपुर)
यह मेला माघ कृष्ण चतुर्थी को भरता है।
यह मेला “कंजर जनजाति का कुम्भ” कहलाता है।
इस जनजाति के घरों में मुख्य दरवाजे के स्थान पर छोटी-छोटी खिडकियां बनी होती है जो भागने में सहायता करती है।
नृत्य
चकरी नृत्य
6. कथौडी
कथौड़ी जनजाति राज्य में उदयपुर जिले की कोटड़ा झालौड व सराडा तहसीलों में निवास करती हैं ।
यह जनजाति मूल रूप से महाराष्ट्र की है।
यह जनजाति खैर के वृक्ष से कत्था तैयार करने में दक्ष मानी जाती है।
कथौडी जनजाति की महिलाऐं मराठी अंदाज में एक साड़ी पहनती है जिसे फड़का कहते है।
वाद्ययंत्र
तारपी, पावरी (सुषिर श्रेणी के)
नृत्य
मावलिया, होली
ये दूध नहीं पीते।
कथौड़ी जनजाति का पसंदीदा पेय पदार्थ महुआ की शराब है।
गाय तथा लाल मुंह वाले बन्दर का मांस खाना पसंद करते है।
7. डामोर
डामेर जनजाति मुख्यतः डूंगरपुर जिले की सिमलवाड़ा पंचायत समिति में निवास करती है।
इनकी उत्पत्ति राजपूतों से मानी जाती है।
इस जनजाति के लोग एकलवादी होते है। शादी होते ही लड़के को मूल परिवार से अलग कर दिया जाता है।
ये मांसाहारी होते है।
इस जनजाति के पुरूष महिलाओं के समान अधिक आभूषण धारण करते है।
डामोर जनजाति की पंचायत के मुखिया को मुखी कहा जाता है।
चाडि़या
होली के अवसर पर डामोर जनजाति द्वारा आयोजित उत्सव चाडि़या कहलाता है।
मेला
ग्यारस रेवाड़ी का मेला
डूंगरपुर में अगस्त- सितम्बर माह में भरता है।
8. सांसी
खानाबदोश जीवन यापन करने वाली सांसी जनजाति भरतपुर जिले मे निवास करती है।
सांसी जनजाति की उत्पत्ति सांसमल नामक व्यक्ति से मानी जाती है।
सांसी जनजति के दो वर्ग है 1. बीजा- धनादय वर्ग 2. माला -गरीब वर्ग
सांसी जनजाति में विधवा विवाह का प्रचलन नहीं है।
इस समाज में किसी विवाद की स्थिति में हरिजन व्यक्ति को आमंत्रित किया जाता है।
मेला
पीर बल्लूशाह का मेला
संगरिया में जून माह में आयोजित होता है।
अन्य महत्वपूर्ण तथ्य
राज्य की अधिकांश जनजातिया उदयपुर जिले मे निवास करती है।
लोकाई/कांधिया –आदिवासियों में प्रचलित मृत्युभोज की प्रथा है।
भराड़ी –आदिवासियों विशेशकर भीलों में प्रचलित वैवाहिक भित्ति चित्रण की लोक देवी है।
यह बांसवाड़ा के कुशलगढ़ क्षेत्र की विशिष्ट परम्परा है।
जिस भील कन्या का विवाह होता है उसके घर की दीवार पर जंवाई के द्वारा हल्दी रंग से लोक देवी का चित्रण किया जाता है।
लीला मोरिया संस्कार – आदिवासियों में प्रचलित विवाह से संबंधित संस्कार है।
हलमा/हांडा/हीड़ा – आदिवासियों में प्रचलित सामुहिक सहयोग की प्रथा/भावना है।
हमेलो – आदिवासियों में प्रचलित जनजातिय उत्सव है, जिसका आयोजन “माणिक्य लाला वर्मा आदिम जाति शोध संस्थान” द्वारा किया जाता है।
इस उत्सव के आयोजन का उद्देश्य अदिवासियों की सांस्कृतिक परम्पराओं को बनाए रखना है।
नातरा प्रथा – आदिवासियों में प्रचलित विधवा पुनर्विवाह की प्रथा है।
मारू ढोल – गंभीर संकट अथवा विपत्ति के समय ऊंची पहाड़ी पर चढ़कर जोर-जोर से ढोल बजाना अर्थात् सहयोग के लिए पुकारना।
फाइरे-फाइरे- भीलों का रणघौष है।
कीकमारी – विपदा के समय जोर-जोर से चिल्लाने की आवाज
पाखरिया – जब कोई भील किसी सैनिक के घोडे़ को मार देता है तो उस भील को पाखरिया कहा जाता है।
यह सम्माननीय शब्द है।
मौताणा – उदयपुर संभाग में प्रचलित प्रथा है, जिसके अन्तर्गत खून-खराबे पर जुर्माना वसूला जाता है।
वसूली गई राशि वढौतरा कहलाती है।
दापा करना – आदिवासियों में विवाह के लिए वर द्वारा वधू का चुकाया गया मूल दावा कहलाता है।
बपौरी – दोपहर के विश्राम का समय “बपौरी” कहलाता है।
मावडि़या – आदिवासियों में प्रचलित बन्धुआ मजदूर प्रथा है।
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