राजस्थान का इतिहास जानने के स्त्रोत
इतिहास का शाब्दिक अर्थ- ऐसा निश्चित रूप से हुआ है। इतिहास के जनक यूनान के हेरोडोटस को माना जाता हैं लगभग 2500 वर्ष पूर्व उन्होने “हिस्टोरिका” नामक ग्रन्थ की रचना की।
भारतीय इतिहास के जनक महाभारत के लेखक वेद व्यास माने जाते है।
कर्नल जेम्स टॉड को राजस्थान के इतिहास का जनक माना जाता है।
इतिहास के स्रोतों को मुख्य रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है। पुरातात्विक तथा साहित्यिक स्रोत। पुरातात्विक स्रोतों को अभिलेखों, मुद्रा एवं ताम्र पत्रों आदि में विभाजित कर सकते हैं। राजस्थान के ऐतिहासिक स्रोतों को हम संस्कृत भाषा का ऐतिहासिक साहित्य, राजस्थानी भाषा का ऐतिहासिक साहित्य, हिन्दी भाषा का ऐतिहासिक साहित्य तथा प्राकृत भाषा/जैन भाषा का ऐतिहासिक साहित्य में बांट सकते हैं।
राजस्थान के इतिहास को जानने के स्त्रोत
पुरातात्विक स्त्रोत | पुरालेखागारिय स्त्रोंत | साहित्यिक स्त्रोत |
---|---|---|
शिलालेख | हकीकत बही | राजस्थानी साहित्य |
ताम्रपत्र | हुकूमत बही | संस्कृत साहित्य |
सिक्के | कमठाना बही | फारसी साहित्य |
पुरातात्विक स्रोत
राजस्थान के इतिहास के अध्ययन के लिए पुरातात्विक स्रोत सर्वाधिक प्रामाणिक साक्ष्य हैं। इनमें मुख्यतः खुदाई में निकली सामग्री, अभिलेख, सिक्के, स्मारक, ताम्रपत्र, भवन, मूर्ति, चित्रकला आदि आते हैं। पुरातात्विक स्रोतों के उत्खनन, सर्वेक्षण, संग्रहण, अध्ययन एवं प्रकाशन आदि का कार्य भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग करता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की स्थापना अलेक्जेन्डर कनिंघम के नेतृत्व में 1861 ई. में की गई थी। राजस्थान में पुरातात्विक सर्वेक्षण कार्य सर्वप्रथम 1871 ई. में प्रारंभ करने का श्रेय ए. सौ.एल. कार्लाइल को जाता है।
राजस्थान से संबंधित प्रमुख पुरातात्विक स्रोत निम्नलिखित हैं :-
शिलालेख/अभिलेख(APIGRAPH )
पुरातात्विक स्रोतों के अन्तर्गत महत्त्वपूर्ण स्रोत अभिलेख हैं। इसका मुख्य कारण उनका तिथियुक्त एवं समसामयिक होना है। प्रारंभिक अभिलेखों की भाषा संस्कृत है, जबकि मध्यकालीन अभिलेखों की भाषा संस्कृत, फारसी, उर्दू, राजस्थानी आदि है। जिन अभिलेखों में मात्र किसी शासक की उपलब्धियों की यशोगाथा होती है, उसे ‘प्रशस्ति’ कहते हैं।
अभिलेखों के अध्ययन को‘एपिग्राफी’ कहते हैं। अभिलेखों में शिलालेख, स्तम्भ लेख, गुहालेख, मूर्तिलेख, पट्टलेख आदि आते हैं अर्थात् पत्थर, धातु आदि पर उकेरे गए लेख सम्मिलित हैं। भारत में सबसे प्राचीन अभिलेख अशोक मौर्य के है जो प्राकृत मागधी भाषा एवं मुख्यतया ब्राह्मी लिपि (अन्य लिपियां है खरोष्ठी, अरेमाइक और यूनानी) मे लिखे गए हैं। शक शासक रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख भारत में पहला संस्कृत का अभिलेख है। राजस्थान के अभिलेखों की मुख्य भाषा संस्कृत एवं राजस्थानी है। इनकी शैली गद्य-पद्य है तथा इनकी लिपि महाजनी एवं हर्षकालीन है, लेकिन नागरी लिपि को विशेष रूप से काम में लाया गया है।
राजस्थान के इतिहास से संबंधित कुछ प्रमुख अभिलेख निम्नलिखित हैं-
अशोक का भाब्रुलेख : जयपुर के निकट बैराठ से प्राप्त इस लेख में अशोक द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने की पुष्टी होती है। वर्तमान में यह लेख कोलकात्ता म्युजियम में है। अशोक का यह लेख पाली भाषा व ब्राहणी लिपि में है। कनिघम इस शिलालेख को अध्ययन के लिए कोलकत्ता ले गये थे।
घोसुण्डी का लेख : चित्तौडगढ़ जिले से प्राप्त यह लेख राजस्थान में वैष्णव (भागवत) संप्रदाय से संबंधित प्राचीनतम् अभिलेख है, जो द्वितीय शती ईसा पूर्व का है। इसकी भाषा संस्कृत एवं लिपि ब्राह्मी है।
बरली का शिलालेख : यह शिलालेख राजस्थान का प्राचीनतम शिलालेख कहलाता है। अजमेर से 35 किमी. दूर बरली के पास मिलोत माता के मंदिर से इसे प्राप्त किया गया था। यह दूसरी शताब्दी ई.पू. का है तथा ब्राह्मी लिपि है।
मानमोरी अभिलेख (चित्तौड़गढ़) : यह अभिलेख मौर्य वंश से संबंधित है। इसका प्रशस्तिकार नागभट्ट का पुत्र पुष्य एवं उत्कीर्णक करूण का पौत्र शिवादित्य था। इसमें चित्रांगद मौर्य का उल्लेख है जिसने चित्तौड़गढ़ का निर्माण करवाया था। इसमें चार मोरिय (मौर्य) राजाओं यथा-महेश्वर (शत्रुहन्ता), भीम (अवन्तिपुर का राजा), भोज एवं राजा मान का उल्लेख आया है। इसमें अमृत मंथन की कथा एवं उसके संबंध में कर का उल्लेख है। जब कर्नल टॉड इसे इंग्लैण्ड ले जा रहा था तो असंतुलन के कारण समुद्र में फेंकना पड़ा।
नांदसा यूप-स्तम्भ लेख (225 ई.) : नांदसा भीलवाड़ा का एक गांव है। जहां गोल स्तम्भ है जो लगभग 12 फीट ऊँचा और साढ़े पांच फीट गोलाई में है।
बड़वा यूप अभिलेख (238-39 ई.), कोटा : बड़वा यूप अभिलेख बड़वा ग्राम कोटा में स्थित है। इसकी भाषा संस्कृत एवं लिपि ब्राह्मी उत्तरी है। मौखरी राजाओं का यह सबसे पुराना और पहला अभिलेख है। यूप एक प्रकार का स्तम्भ है।
नगरी का शिलालेख (424 ई.) : इस लेख को डी.आर. भंडारकर ने नगरी से उत्खनन के समय प्राप्त किया था। इसे अजमेर संग्रहालय में सुरक्षित कर दिया गया। इसकी भाषा संस्कृत और लिपि नागरी है। इसका संबंध विष्णु की पूजा के स्थान विशेष से है।
भ्रमरमाता का लेख (490 ई.) : छोटी सादड़ी में (जिला चित्तौड़) भ्रमरमाता का मंदिर है। यहां से 17 पंक्तियों का संस्कृत पद्य में लेख उपलब्ध हुआ है जो पांचवीं शताब्दी की राजनीतिक स्थिति को समझने में बड़ा सहायक है। इसमें गौरवंश तथा औलिकर वंश के शासकों का वर्णन मिलता है। गौरवंशीय शासकों द्वारा ही यहां माता का मंदिर बनवाया गया जिससे इनकी शाक्त धर्म के प्रति भक्ति होना दिखाई पड़ता है। प्रशस्ति का रचयिता मित्रसोम का पुत्र ब्रह्मसोम और लेखक पूर्वा था।
बसन्तगढ़ का लेख (625 ई.) : सिरोही जिले के बसंतगढ़ के वि.सं. 682 के लेख राजा वर्मलात के समय का है। सामन्त प्रथा पर इस लेख से कुछ प्रकाश पड़ता है।
सांमोली शिलालेख (646 ई.) : यह शिलालेख मेवाड़ के दक्षिण में भोमट तहसील सांमोली गांव से मिला है। यह लेख मेवाड़ के गुहिल राजा शीलादित्य के समय का वि.सं. 703 (ई.सं. 646) का है। इसमें प्रयुक्त की गई भाषा संस्कृत तथा लिपि कुटिल है। इससे यह भी संकेत मिलता है कि जावर के निकट के अरण्यगिरि में तांबे और जस्ते की खानों का काम भी इसी युग से आरंभ हुआ हो।
अपराजित का शिलालेख (661 ई.) : यह लेख नागदे गांव के निकटवर्ती कुंडेश्वर के मंदिर में मिला। लेख की भाषा संस्कृत है। गुहिल शासक अपराजित के इस लेख से गुहिलों की उत्तरोत्तर विजयों के बारे में सूचना प्राप्त होती है। इसके अनुसार अपराजित ने एक तेजस्वी शासक वराहसिंह को पराजित कर उसे अपना सेनापति नियुक्त किया था। इसमें विष्णु मन्दिर के निर्माण का भी उल्लेख है।
कणसवा अभिलेख (738 ई.) कोटा : इस अभिलेख में मौर्य वंशी राजा धवल का उल्लेख आया है। संभवतः धवल राजस्थान में अंतिम मोरी (मौर्य) वंशी राजा था।
मण्डौर अभिलेख (837 ई.), जोधपुर : यह गुर्जर नरेश ‘बाउक’ की प्रशस्ति है। इसमें गुर्जर-प्रतिहारों की वंशावली, विष्णु एवं शिव पूजा का उल्लेख किया गया है।
घटियाला शिलालेख (861 ई.) : जोधपुर से 22 मील दूर घटियाला नामक स्थान पर एक जैन मन्दिर जिसे ‘माता की साल’ कहते हैं, के समीप स्थित स्तम्भ पर चार लेखों का समूह है। लेख की भाषा संस्कृत है जिसमें गद्य और पद्य का प्रयोग किया गया है। इस लेख में प्रतिहार शासकों, मुख्यतः कक्कुक प्रतिहार की उपलब्धियों और राजनीतिक, सामाजिक व धार्मिक नीतियों के बारे में सूचना प्राप्त होती है। इस लेख में ‘मग’ जाति के ब्राह्मणों का भी विशेष उल्लेख किया गया है जो वर्ण विभाजन का द्योतक है। ‘मग’ ब्राह्मण ओसवालों के आश्रय में रहकर निर्वाह करते थे तथा जैन मन्दिरों में भी पूजा सम्पन्न करवाते थे। ये लेख मग द्वारा लिखे गये तथा स्वर्णकार कृष्णेश्वर द्वारा उत्कीर्ण किये गये थे।
मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति (880 ई.) : गुर्जर प्रतिहारों के लेखों में सर्वाधिक उल्लेखनीय मिहिरभोज का ग्वालियर अभिलेष है जो एक प्रशस्ति के रूप में है। इसमें कोई तिथि अंकित नहीं है। यह प्रतिहार वंश के शासको की राजनैतिक उपलब्धियों तथा उनकी वंशावली को ज्ञात करने का मुख्य साधन है।
प्रतापगढ़ अभिलेख (946 ई.), प्रतापगढ़ : इस अभिलेख में गुर्जर-प्रतिहार नरेश महेन्द्रपाल की उपलब्धियों का वर्णन किया गया है।
बिजौलिया शिलालेख (भीलवाड़ा 1170 ई., प्रशस्तिकार गुणभद्र) : इस अभिलेख में सांभर (शाकम्भरी) एवं अजमेर के चौहानों का वर्णन है। इसके अनुसार चौहानों के आदिपुरुष वासुदेव चहमन (चौहान )ने 551ई. में शाकम्भरी में चहमान (चौहान) राज्य की स्थापना की तथा सांभर झील का निर्माण करवाया था। उसने अहिच्छत्रपुर (नागौर) को अपनी राजधानी बनाया। इसमें सांभर तथा अजमेर के चौहानों को वत्सगोत्रीय ब्राह्मण बताया गया है तथा उनकी वंशावली दी गई है।
अचलेश्वर प्रशस्ति : यह प्रशस्ति बहुत बड़ी है। इसमें अग्निकुंड से पुरुष के उत्पन्न होने का उल्लेख है तथा यह वर्णित है कि परमारों का मूल पुरुष धूमराज था।
लूणवसही (आबू-देलवाड़ा) की प्रशस्ति (1230 ई.) : यह प्रशस्ति पोरवाड़ जातीय शाह वस्तुपाल तेजपाल द्वारा बनवाये हुए आबू के देलवाड़ा गांव के लूणवसही के मंदिर की संवत् 1287 की है। इसकी भाषा संस्कृत है।
नेमिनाथ (आबू) के मंदिर की प्रशस्ति (1230 ई.) : यह प्रशस्ति वि.सं. 1287 की है। इसको तेजपाल के द्वारा बनवाये गये आबू पर देलवाड़ा गांव के नेमिनाथ के मंदिर में लगाई गई थी। इसमें आबू, मारवाड़, सिंध, मालवा तथा गुजरात के कुछ भागों पर शासन करने वाले परमारों तथा वस्तुपाल और तेजपाल के वंशों का वर्णन दिया है।
चीरवा अभिलेख (उदयपुर) : चीरवा शिलालेख 1273 ई. का है। 36 पंक्तियों एवं देवनागरी लिपी में तथा संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध 51 श्लोकों का शिलालेख मेवाड़ के गुहिलवंशी राणाओं की समरसिंह के काल तक की जानकारी प्रदान करता है।
श्रृंगीऋषी का शिलालेख (1428 ई.) : मेवाड़ (15 वी. सदी) क्षेत्र से प्राप्त इस लेख से गुहिल वंश की जानकारी के साथ-साथ राजस्थान की प्राचीन जनजाती भील जनजाती के सामाजिक जीवन पर भी प्रकाश पड़ता है।
रणकपुर प्रशस्ति का लेख : यह लेख 1439 ई. का है जो कि रणकपुर के जैन चौमुख मंदिर में लगा हुआ है। इस लेख से प्रतीत होता है कि रणकपुर का निर्माता दीपा था। इस लेख में बापा से लेकर कुम्भा तक के मेवाड़ नरेशों का उल्लेख मिलता है।
कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति (1440-1448 ई.) चित्तौड़गढ़ : इसका प्रशस्तिकार महेश भट्ट था। यह राणा कुंभा की प्रशस्ति है। इसमें बापा से लेकर राणा कुंभा तक गुहिलों की वंशावली एवं उनकी उपलब्धियों का वर्णन है। इसमें राणा कुंभा की उपलब्धियों एवं उसके द्वारा रचित ग्रंथों का विशद् वर्णन मिलता है। इस प्रशस्ति में चण्डीशतक, गीतगोविन्द की टीका, संगीतराज आदि प्रमुख ग्रन्थों का उल्लेख हुआ हैं। प्रशस्ति में कुंभा को महाराजाधिराज, अभिनव भरताचार्य, हिन्दू सुरताण, रायरायन, राणो रासो, छापगुरु, दानगुरु, राजगुरु और शैलगुरु जैसी उपाधियों से पुकारा गया है।
कुंभलगढ़ प्रशस्ति (1460 ई.) राजसमन्द : इसका प्रशस्तिकार (उत्कीर्णक) कवि महेश था। इसमें गुहिल वंश का वर्णन एवं उनकी उपलब्धियाँ बताई गई हैं। इस लेख में बापा रावल को विप्रवंशीय (ब्राह्मण) बताया गया है। यह मेवाड़ के महाराणाओं की वंशावली को विशुद्ध रूप से जानने का महत्त्वपूर्ण साधन है।
कुम्भलगढ़ का शिलालेख (1460 ई.) : यह शिलालेख पांच शिलाओं पर उत्कीर्ण था जिसमें से पहली, तीसरी और चौथी शिलाएं उपलब्ध हैं। इनमें प्रयुक्त की गई भाषा संस्कृत तथा लिपि नागरी है।
रायसिंह प्रशस्ति (1594 ई.) बीकानेर : इसका प्रशस्तिकार क्षेमरत्न का शिष्य जैन मुनि जैता (जड़ता) था। इसमें राव बीका से लेकर राव रायसिंह तक के बीकानेर के शासकों की उपलब्धियों का वर्णन है। इसके अनुसार बीकानेर दुर्ग का निर्माण 30 जनवरी, 1589 से 1594 तक राव रायसिंह ने अपने मंत्री कर्मचन्द द्वारा करवाया था। बीकानेर दुर्ग लाल पत्थरों से निर्मित होने के कारण ‘लालगढ़’ भी कहा गया है। इस दुर्ग का दूसरा नाम ‘जूनागढ़’ भी है।
आमेर का लेख (1612 ई.) : मानसिंह प्रथम के इस लेख में कछवाह वंश को ‘रघुवंशतिलक’ कहकर सम्बोधित किया गया है तथा इसमें पृथ्वीराज, उसके पुत्र राजा भारमल, उसके पुत्र भगवंतदास और उसके पुत्र महाराजाधिराज मानसिंह के नाम क्रम से दिये हैं। मानसिंह द्वारा आमेर क्षेत्र जमवारामगढ़ दुर्ग बनवाये जाने का उल्लेख किया गया है।
जगन्नाथराय प्रशस्ति (1652 ई.) उदयपुर : इसका प्रशस्तिकार कृष्ण भट्ट था। लेख की लिपि देवनागरी एवं भाषा संस्कृत है। इसमें बापा रावल से लेकर जगतसिंह सिसोदिया तक गुहिलों का वर्णन है। यह प्रशस्ति उदयपुर के जगन्नाथराय के मंदिर के सभामण्डल में जाने वाले भाग के दोनों तरफ श्याम पत्थर पर उत्कीर्ण है।
राजसिंह प्रशस्ति (1676 ई.) राजसमंद : इसके प्रशस्तिकार रणछोड़भट्ट तैलंग (ब्राह्मण) था। इसे 1676 ई. में महाराणा राजसिंह सिसोदिया के समय स्थापित करवाया गया था। यह राजसमंद झील की ‘नौ चौकी‘ की पाल पर 25 श्याम शिलाओं पर उत्कीर्ण विश्व की सबसे बड़ी प्रशस्ति (अभिलेख) है। इस महाकाव्य को पत्थर की शिलाओं पर खुदवाने के आदेश राजसिंह के उत्तराधिकारी जयसिंह के द्वारा दिए गए थे। इसमें बापा रावल से लेकर राणा जगतसिंह द्वितीय तक गुहिलों की वंशावली व उपलब्धियाँ वर्णित हैं। इसमें महाराणा अमरसिंह द्वारा की गई मुगल-मेवाड़ संधि का वर्णन है।
फारसी शिलालेख
ढाई दिन का झोंपड़ा का लेख : अजमेर में कुतुबुद्दीन ऐबक ने ढाई दिन का झोंपड़ा बनवाया । इस पर फारसी भाषा में इसके निर्माताओं के नाम लिखे है। यह भारत का सर्वाधिक प्राचीन फारसी लेख है।
धाई-बी-पीर की दरगााह का लेख (1303 ई.) : चित्तौड़ से प्राप्त फारसी लेख से ज्ञात होता है कि 1303 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड पर अधिकार कर उसका नाम अपने बडें पुत्र खिज्र खां के नाम पर खिज्राबाद कर दिया।
श्शाहबाद का लेख (1679 ई.) : बांरा जिले से प्राप्त इस लेख से ज्ञात होता है कि मुगल शासक औरंगजेब ने इस ई. में गैर मुस्लिम जनता पर जजिया कर लगा दिया औंरगजेब की कर नीति की जानकारी भी प्राप्त होती है।
ताम्र-पत्र
ताम्र पत्र भूमि दान से जुड़े हुए हैं। जब किसी शासक द्वारा अपने सामन्त /अधिकारी /ब्राह्मण/भिक्षु आदि को भूमिदान दिया जाता था तो सनद के रूप में उसका उल्लेख ताम्र-पत्र में दिया जाता था। भारत में सर्वप्रथम सातवाहन शासकों ने ब्राह्मणों/बौद्ध भिक्षुओं को भूमिदान देने की प्रथा प्रारम्भ की। ताम्रपत्रों में पहले संस्कृत भाषा का प्रयोग किया गया परन्तु बाद में स्थानीय भाषा का प्रयोग किया जाने लगा। इस प्रकार की भूमि सभी करों से मुक्त होती थी। कालान्तर में इसी प्रकार के अनुदानों ने सामन्तवाद के विकास में योगदान दिया। इससे केन्द्रीय नियंत्रण शिथिल हो गया।
भूमि की नाप में ‘बीघा’ तथा ‘हल’ शब्दों का प्रयोग होता है जो छोटी तथा बड़ी नाप होती थी। एक हल में 50 बीघा का प्रमाण होता था और बीघा साधारणतः 25 से 40 बाँस तक आँका जाता था। भूमि की किस्मों में पीवल, मगरो, पड़त, गलत-हास, चरणोत, रांखड, वीडो, कांकड, तलाई, गोरमो आदि शब्द प्रयुक्त होते थे। फसलों को सीयालू एवं ऊनालू और फिर रबी व खरीफ में बांटा जाता था।
राजस्थान के कुछ प्रमुख ताम्र-पत्र निम्नलिखित हैं :-
धूलेव का दान-पत्र (679 ई.) : इसमें वर्णित है कि किष्किन्धा (कल्याणपुर) के महाराज भेटी ने अपने महामात्र आदि अधिकारियों को आज्ञा देकर अवगत कराया कि उसने महाराज बप्पदत्ति के श्रेयार्थ तथा धर्मार्थ उब्बरक नामक गांव को भट्टिनाग नामक ब्राह्मण को अनुदान के रूप में दिया।
ब्रोच गुर्जर ताम्रपत्र (978 ई.) : इसमें गुर्जर कबीला का सप्तसैंधव भारत से गंगा कावेरी तक के अभियान का वर्णन है। इसी ताम्रपत्र के आधार पर कनिंघम ने राजपूतों को कुषाणों यू-ए-ची जाति का माना है।
चीकली ताम्र-पत्र (1483 ई.) : इससे किसानों से वसूल की जाने वाली ‘विविध लाग-बागों’ का पता चलता है। इसमें पटेल, सुथार एवं ब्राह्मणों द्वारा खेती किए जाने का वर्णन है।
पुर का ताम्र-पत्र (1535 ई.) : यह ताम्र-पत्र महाराणा श्री विक्रमादित्य के समय का है। इसमें हाड़ी रानी कमेती (कर्मावती) द्वारा जौहर में प्रवेश करते समय दिए गए भूमि अनुदान की जानकारी मिलती है। इस ताम्रपत्र से जौहर की प्रथा पर प्रकाश पड़ता है तथा चितौड़ के द्वितीय शाके का ठीक समय निर्धारित होता है।
खेरादा ताम्र-पत्र (1437 ई.) : यह ताम्र-पत्र महाराणा कुंभा के समय का है। इसमें एकलिंगजी में राणा कुंभा द्वारा प्रायश्चित करने, दान दिये गए खेत, उस समय की प्रचलित मुद्रा, धार्मिक स्थिति की जानकारी मिलती है।
सिक्के( COINS )
(Coins) सिक्को के अध्ययन न्यूमिसमेटिक्स( कहा जाता है। भारत में सर्वप्रथम सिक्को का प्रचलन 2500 वर्ष पूर्व हुआ ये मुद्राऐं खुदाई के दोरान खण्डित अवस्था में प्राप्त हुई है। अतः इन्हें आहत मुद्राएं कहा जाता है। इन पर विशेष चिन्ह बने हुए है। अतः इन्हें पंचमार्क सिक्के भी कहते है। ये मुद्राऐं वर्गाकार, आयाताकार व वृत्ताकार रूप में है। कोटिल्य के अर्थशास्त्र में इन्हें पण/कार्षापण की संज्ञा दी गई ये अधिकांशतः चांदी धातु के थे।
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