भारत की जलवायु -GURUGGKWALA

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भारत की जलवायु

किसी स्थान अथवा देश में लम्बे समय के तापमान, वर्षा, वायुमण्डलीय दबाब तथा पवनों की दिशा व वेग का अध्ययन व विश्लेषण जलवायु कहलाता है। सम्पूर्ण भारत को जलवायु की दृष्टि से उष्णकटिबंधीय मानसूनी जलवायु वाला देश माना जाता है।

भारत में उष्ण कटिबंधीय मानसूनी जलवायु पायी जाती है। मानसून शब्द की उत्पत्ति अरबी भाषा के ‘मौसिम’ शब्द से हुई है। मौसिम शब्द का अर्थ पवनों की दिशा का मौसम के अनुसार उलट जाना होता है। भारत में अरब सागर एवं बंगाल की खाड़ी से चलने वाली हवाओं की दिशा में ऋतुवत् परिवर्तन हो जाता है, इसी संदर्भ में भारतीय जलवायु को मानसूनी जलवायु कहा जाता है।

भारतीय जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक

स्थिति एवं अक्षांशीय विस्तार

भारत उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित है एवं कर्क रेखा भारत के लगभग मध्य से होकर गुजरती है अतः यहां का तापमान उच्च रहता है, ये भारत को उष्णकटिबंधीय जलवायु वाला क्षेत्र बनाती है।

समुद्र से दूरी

भारत तीन ओर से समुद्र से घिरा हुआ है भारत के पश्चिमी तट, पूर्वी तट एवं दक्षिण भारतीय क्षेत्र पर समुद्रीय जलवायु का प्रभाव पड़ता है किन्तु उत्तरी भारत, उत्तर पश्चिमी भारत एवं उत्तरी-पूर्वी भारत पर समुद्रीय जलवायु का प्रभाव नगण्य है।

उत्तरी पर्वतीय श्रेणियां

हिमालयी क्षेत्र भारत की जलवायु को प्रभावित करता है यह मानसून की अवधि में भारतीय क्षेत्र में वर्षा का कारण भी बनता है तथा शीत ऋतु में तिब्बतीय क्षेत्र से आने वाली अत्यंत शीत लहरों में रूकावट पैदा कर भारत को शीत लहर के प्रभावों से बचाने के लिए एक आवरण या दीवार की भूमिका निभाता है।

भू-आकृति

भारत की भू-आकृतिक संरचना पहाड़, पठार, मैदान एवं रेगिस्तान भी भारत की जलवायु को प्रभावित करते हैं। अरावली पर्वतमाला का पश्चिमी भाग एवं पश्चिमी घाट का पूर्वी भाग आदि वर्षा की कम मात्रा प्राप्त करने वाले क्षेत्र हैं।

मानसूनी हवाएं

मानसूनी हवाएं भी भारतीय जलवायु को प्रभावित करती हैं। हवाओं में आर्द्रता की मात्रा, हवाओं की दिशा एवं गति आदि।

ऊध्र्व वायु संरचरण(जेट स्ट्रीम)

जेट स्ट्रीम ऊपरी क्षोभमण्डल में आम तौर पर मध्य अक्षांश में भूमि से 12 किमी. ऊपर पश्चिम से पूर्व तीव्र गति से चलने वाली एक धारा का नाम है। इसकी गति सामान्यतः 150-300 किमी. की होती है।

उष्ण कटिबंधीय चक्रवात और पश्चिमी विक्षोभ

उष्ण कटिबंधीय चक्रवात का निर्माण बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में होता है। और यह प्रायद्वीपीय भारत के एक बड़े भू-भाग को प्रभावित करता है।

दक्षिणी दोलन(साउथर्न- आस्लिेशन)

जब कभी भी हिन्द महासागर के ऊपरी सतह का दबाब अधिक हो जाता है, तब प्रशांत महासागर के ऊपर निम्न दबाब बनता है। और जब प्रशांत महासागर के ऊपर उच्च दबाब की सृष्टि होती है तब हिन्द महासागर के ऊपर निम्न दबाब बनता है। दोनों महासागरों के इस उच्च एवं निम्न वायु दाबी अन्तः सम्बन्ध को ही दक्षिणी दोलन कहते हैं।

एल-नीनो

अल.नीनो एक मौसम की स्थिति है जिसका भारत के मानसून पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यह समुद्र में होने वाली उथलपुथल है और इससे समुद्र के सतही जल का ताप सामान्य से अधिक हो जाता है। अक्सर इसकी शुरूआत दिसंबर में क्रिसमस के आस पास होती है। ये ईसा मसीह के जन्म का समय है। और शायद इसी कारण इस घटना का नाम एल.नीनो पड़ गया जो शिशु ईसा का प्रतीक है।

इसके प्रभाव के कारण भारत में कम वर्षा होती है।

ला-नीनो

ला नीना भी मानसून का रुख तय करने वाली सामुद्रिक घटना है। एल.नीनो में समुद्री सतह गर्म होती है वहीं ला.नीनो में समुद्री सतह का तापमान बहुत कम हो जाता है। यूं तो सामान्य प्रक्रिया के तहत पेरु तट का समुद्री सतह ठंडी होती है लेकिन यही घटना जब काफी देर तक रहती है तो तापमान में असामान्य रूप से गिरावट आ जाती है। इस घटना को ला.नीनो कहा जाता है।

इसके प्रभाव में भारत में वर्षा की मात्रा अच्छी रहती है।

कोपेन का जलवायु वर्गीकरण

कोपेन ने भारतीय जलवायुवीय प्रदेशों को 9 भागों में विभाजित किया है।

1. लघुकालीन शीत ऋतु सहित मानसूनी जलवायु

ऐसी जलवायु मुम्बई के दक्षिण में पश्चिमी तटीय क्षेत्रों में पायी जाती है। इन क्षेत्रों में दक्षिण-पश्चिम मानसून से ग्रीष्म ऋतु में 250-300 सेमी. से अधिक वर्षा होती है। इस जलवायु प्रदेश में आने वाले क्षेत्र –

  • मालावार एवं कोंकण तट, गोवा के दक्षिण तथा पश्चिमी घाट पर्वत की पश्चिमी ढ़ाल
  • उत्तर पूर्वी भारत
  • अंडमान-निकोबार द्वीप समूह

2. उष्ण कटिबंधीय सवाना जलवायु प्रदेश

यह जलवायु कोरोमण्डल एवं मालाबार तटीय क्षेत्रों के अलावा प्रायद्वीपीय पठार के अधिकांश भागों में पायी जाती है। इस जलवायु क्षेत्र की ऊपरी सीमा लगभग कर्क रेखा से मिलती है। अर्थात यह जलवायु कर्क रेखा के दक्षिण में स्थित प्रायद्वीपीय भारत के अधिकांश भागों में पायी जाती है। यहां सवाना प्रकार की वनस्पति पायी जाती है। इस प्रकार के प्रदेश में ग्रीष्म काल में ग्रीष्म काल में दक्षिण-पश्चिम मानसून से लगभग 75 सेमी. वर्षा होती है। शीतकाल सूखा रहता है।

3. शुष्क ग्रीष्म ऋतु, आर्द्र शीत ऋतु सहित मानसूनी जलवायु

यह वह प्रदेश है जहां शीतकाल में वर्षा होती है और ग्रीष्म ऋतु में सूखा रहता है। यहां शीत ऋतु में उत्तर-पूर्वी मानसून(लौटते हुए मानसून) से अधिकांश वर्षा होती है। वर्षा की मात्रा शीतकाल में लगभग 75-100 सेमी. तक होती है। इसके अन्तर्गत तटीय तमिलनाडु और आन्ध्र प्रदेश के सीमावर्ती प्रदेश आते हैं।

4. अर्द्ध शुष्क स्टेपी जलवायु

यहां वर्षा ग्रीष्मकाल में 30-60 सेमी. होती है। शीतकाल में वर्षा का अभाव रहता है। यहां स्टेपी प्रकार की वनस्पति पायी जाती है। इसके अन्तर्गत – मध्यवर्ती राजस्थान, पश्चिमी पंजाब, हरियाणा, गुजरात के सीमावर्ती क्षेत्र एवं पश्चिमी घाट का वृष्टिछाया प्रदेश शामिल हैं।

5. उष्ण मरूस्थलीय जलवायु

यहां वर्षा काफी कम(30 सेमी. से भी कम) होती है, तापमान अधिक रहता है। यहां प्राकृतिक वनस्पति कम(नगण्य) होती है एवं कांटेदार मरूस्थलीय वनस्पति पायी जाती है इस प्रदेश के अंतर्गत – राजस्थान का पश्चिमी क्षेत्र, उत्तरी गुजरात, एवं हरियाणा का दक्षिणी भाग शामिल हैं।

6. शुष्क शीत ऋतु की मानसूनी जलवायु

इस प्रकार की जलवायु गंगा के अधिकांश मैदानी इलाकों, पूर्वी राजस्थान, असम और मालवा के पठारी भागों में पायी जाती है। यहां गर्मी में तापमान 40 डिग्री तक बढ़ जाता है। जो शीतकाल में 27 डिग्री तक पहुंच जाता है। वर्षा मुख्यतः ग्रीष्म ऋतु में होती है शीतकाल शुष्क है।

7. लघु ग्रीष्मकाल युक्त शीत आर्द्र जलवायु

इस प्रकार की जलवायु सिक्किम, अरूणाचल प्रदेश और असम(हिमालय का पूर्वी भाग) के हिस्सों में पायी जाती है। शीतकाल ठण्डा, आर्द्र एवं लम्बी अवधि का होता है। शीतकाल में तापमान 10 डिग्री तक होता है।

8. टुण्ड्र तुल्य जलवायु

यहां तापमान सालभर 10 डिग्री से कम रहता है। शीतकाल में हिमपात के रूप में वर्षा होती है। इसके अंतर्गत – उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्र, कश्मीर, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश के 3000 से 5000 मी. ऊंचाई वाले क्षेत्र शामिल हैं।

9. ध्रुवीय तुल्य जलवायु

यहां तापमान सालभर 0 डिग्री से कम(हिमाच्छादित प्रदेश) होता है। इसके अन्तर्गत हिमालय के पश्चिमी और मध्यवर्ती भाग में 5000 मी. से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्र(जम्मू-कश्मीर एवं हिमाचल प्रदेश के उच्च ऊंचाई वाले क्षेत्र) आते हैं।

राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड कक्षा 11 भूगोल के अनुसार कोपेन का जलवायु वर्गीकरण

जलवायु के प्रकारक्षेत्र
Amw – लघु शुष्क ऋतू वाला मानसून प्रकार  गोवा के दक्षिण में भारत का पश्चिमी तट
As – शुष्क ग्रीष्म ऋतू वाला मानसून प्रकारतमिलनाडु का कोरोमंडल तट
  Aw – उष्ण कटिबंधीय सवाना प्रकार  दक्षिण में प्रायद्वीपीय पठार का अधिकतर भाग
BShw – अर्ध शुष्क स्टेपी जलवायु उत्तर- पश्चिमी गुजरात,पश्चिमी राजस्थान और पंजाब के कुछ भाग
BWhw – गर्म मरुस्थल राजस्थान का सबसे पश्चिमी भाग
Cwg – शुष्क शीत ऋतू वाला मानसून प्रकारगंगा का मैदान, पूर्वी राजस्थान, उत्तरी मध्य प्रदेश, उतर पूर्वी भारत का अधिकांश भाग
Dfc – लघु ग्रीष्म तथा ठंठी आद्र शीत ऋतू वालाअरुणचल प्रदेश
E- धुर्वीयजम्मू – कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, और उत्तराखंड

भारतीय मानसून की उत्पत्ति के सिद्धांत

मानसून की उत्पत्ति संबंधित चार प्रमुख सिद्धांत दिए गए हैं-

  1. तापीय सिद्धांत
  2. विषुवतीय पछुआ पवन सिद्धांत
  3. जेट स्ट्रीम सिद्धांत
  4. एलनिनो सिद्धांत

1. मानसून की उत्पत्ति का तापीय सिद्धांत

इस सिद्धांत के अनुसार मानसूनी पवनों की उत्पत्ति का मुख्य कारण तापीय है। ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की किरणें उत्तरी गोलार्द्ध में लम्बवत पड़ती है। इससे यहां एक वृहत निम्न दाब का निर्माण होता है। इस निम्न दाब के कारण उत्तर-पूर्वी व्यापारिक पवनें अनुपस्थित हो जाती हैं जो कि 5 से 30 डिग्री उत्तरी अक्षाशों के बीच सालभर चलती है।

तापीय विषुवत रेखा उत्तर की ओर खिसक जाती है इस कारण दक्षिणी-पूर्वी व्यापारिक पवनें विषुवत रेखा को पार कर उत्तरी गोलार्द्ध में आ जाती हैं। फेरेल के नियमानुसार उत्तरी गोलार्द्ध में आने पर ये पवन अपनी दाहिनी ओर अर्थात् उत्तर पूर्व की ओर मुड जाती हैं। तथा संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप पर प्रवाहित होने लगती हैं। चूंकि ये पवन लम्बी समुद्री यात्रा कर आ रही होती है अतः जलवाष्प युक्त होती है।

ये दक्षिणी पूर्वी मानसूनी पवन भारतीय उपमहाद्वीप में दो भागों में बंटकर वर्षा ऋतु लाती है। प्रथम, अरब सागर शाखा पश्चिमी घाट के पश्चिमी ढ़ाल पर तथा द्वितीय, बंगाल की खाड़ी शाखा के द्वारा अंडमान निकोबार द्वीप समूह एवं उत्तर-पूर्व भारत में भारी वर्षा होती है।

बंगाल की खाड़ी शाखा उत्तर-पश्चिम भारत के निम्न दाब क्षेत्र की ओर अभिसारित होती है।। पूर्व से पश्चिम की ओर जलवाष्प की कमी के साथ ही वर्षा की मात्रा में भी कमी होती जाती है।

व्यापारिक पवनें

व्यापारिक पवनें 5 डिग्री से 30 डिग्री उत्तरी एवं दक्षिणी अक्षांशों के बीच चलने वाली पवनें हैं जो 35 डिग्री उत्तरी एवं दक्षिणी अक्षांश(उच्च दाब) से 0 डिग्री अक्षांश(निम्न दाब) के बीच चलती है।

शीत ऋतु में सूर्य की किरणें मकर रेखा पर सीधी पड़ती है। इससे भारत के उत्तर पश्चिमी भाग में, अरब सागर व बंगाल की खाड़ी की तुलना में अधिक ठण्ड होने के कारण उच्च दाब का निर्माण(उत्तर-पश्चिम भारत में) एवं अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी में निम्न दाब निर्माण(ठण्ड कम होने के कारण) होता है। इस कारण मानसूनी पवनें विपरित दिशा(उच्च दाब से निम्न दाब) में बहने लगती हैं। जाड़े की ऋतु में उत्तर पूर्वी व्यापारिक पवनें पुनः चलने लगती हैं। यह उत्तर पूर्वी मानसून लेकर आता है। तथा बंगाल की खाड़ी से जलवाष्प ग्रहण कर तमिलनाडु के तट पर वर्षा करती है।

2. मानसून की उत्पति का विषुवतीय पछुआ पवन सिद्धांत

इसका प्रतिपादन फ्लोन के द्वारा किया गया है। इसके अनुसार विषुवतीय पछुआ पवन ही दक्षिण-पश्चिम मानसूनी हवा है। इसकी उत्पत्ति अंतः उष्ण अभिसरण के कारण होती है। अंतः उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र उत्तरी पूर्वी व्यापारिक पवनों एवं दक्षिणी पूर्वी व्यापारिक पवनों का मिलन स्थल अंतर-उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र होता है। यहां दोनों पवनों के मिलने से विषुवतीय पछुआ पवनों की उत्पत्ति होती है। फ्लोन ने मानसून की उत्पत्ति हेतु तापीय प्रभाव को प्रमुख माना है। ग्रीष्म काल में तापीय विषुवत रेखा के उत्तरी खिसकान के कारण अंतः उष्ण अभिसरण विषुवत रेखा के उत्तर में होता है। विषुवतीय पछुआ पवनें अपनी दिशा संशोधित कर भारतीय उपमहाद्वीप पर बने निम्न दाब की ओर प्रवाहित होने लगती है। यह दक्षिण-पश्चिम मानसून को जन्म देती है।

शीत ऋतु में सूर्य के दक्षिणायन होने पर निम्न दाब क्षेत्र, उच्च दाब क्षेत्र में बदल जाता है तथा उत्तरी-पूर्वी व्यापारिक पवनें पुनः गतिशील हो जाती है।

3. जेट स्ट्रीम सिद्धांत

इस सिद्धांत का प्रतिपादन येस्ट द्वारा किया गया है। जेट स्ट्रीम ऊपरी वायुमण्डल(9-18 किमी.) के बीच अति तीव्रगामी वायु प्रवाह प्रणाली है। मध्य भाग में इसकी गति अधिकतम(340 किमी./घंटा) होती है। ये हवाएं पृथ्वी के ऊपर एक आवरण का कार्य करती है। जो निम्न वायुमण्डल के मौसम को प्रभावित करती हैं।

भारत में आने वाले दक्षिण-पश्चिम मानसून का संबंध उष्ण पूर्वी जेट स्ट्रीम से है। यह 8°N से 35°N अक्षांशों के मध्य चलती है। उत्तर पूर्वी मानूसन का संबंध(शीतकालीन मानसून) उपोष्ण पश्चिमी(पछुआ) जेट स्ट्रीम से है। यह 20 डिग्री से 35 डिग्री उत्तरी एवं दक्षिणी दोनों अक्षांशों के मध्य चलती है।

पछुआ(उपोष्ण पश्चिमी) जेट स्ट्रीम द्वारा उत्तर पूर्वी मानसून की उत्पत्ति

शीतकाल में उपोष्ण पश्चिमी(पछुआ) जेट स्ट्रीम संपूर्ण पश्चिमी तथा मध्य एशिया में पश्चिम से पूर्व दिशा में प्रवाहित होती है। तिब्बत का पठार इसके मार्ग में अवरोधक का कार्य करता है एवं इसे दो भागों में बांट देता है। एक शाखा तिब्बत के पठार के उतर से उसके समानान्तर बहने लगती है। दुसरी दक्षिणी शाखा हिमालय के दक्षिण में पूर्व की ओर बहती है।

दक्षिणी शाखा की माध्य स्थिति फरवरी में लगभग 25 डिग्री उत्तरी अक्षांश के ऊपर होती है। इसका दाब स्तर 200 से 300 मिली बार होता है। पश्चिमी विक्षोभ जो भारत में शीत ऋतु में आता है, इसी जेट पवन द्वारा लाया जाता है। रात के तापमान में वृद्धि इन विक्षोभों के आने का सूचक है।

पश्चिमी जेट स्ट्रीम ठण्डी हवा का स्तंभ होता है जो सतह पर हवाओं को धकेलता है। इससे सतह पर उच्च दाब का निर्माण(भारत के उत्तर पश्चिमी भाग में) होता है। ये शुष्क हवाएं बंगाल की खाड़ी(तुलनात्मक रूप से तापमान अधिक होने के कारण निम्न दाब क्षेत्र) की ओर प्रवाहित होती है। इन हवाओं के द्वारा ही शीतकाल में उत्तर प्रदेश एवं बिहार में शीतलहर चलती है। बंगाल की खाड़ी में पहुंचने के बाद ये हवाएं अपने दाहिने मुड जाती हैं और मानसून का रूप ले लेती हैं। जब पवन तमिलनाडु के तट पर पहुंचती हैं तो बंगाल की खाड़ी से ग्रहण किए जलवाष्प की वर्षा तमिलनाडू में करती हैं।

उष्ण पूर्वी जेट स्ट्रीम द्वारा दक्षिण पश्चिम मानसून की उत्पत्ति

गर्मी में पश्चिमी जेट स्ट्रीम भारतीय उपमहाद्वीप पर नहीं बहती है। इसका खिसकाव तिब्बत के पठार के उत्तर की ओर हो जाता है। इस समय भारत के ऊपरी वायुमण्डल में उष्ण पूर्वी जेट स्ट्रीम चलती है। उष्ण पूर्वी जेट स्ट्रीम की उत्पत्ति का कारण मध्य एशिया एवं तिब्बत के पठारी भागों के अत्यधिक गर्म होने को माना जाता है।

तिब्बत के पठार से गर्म होकर ऊपर उठने वाली हवाओं में क्षोभमण्डल के मध्य भाग में घड़ी की सुई की दिशा में चक्रिय परिसंचरण प्रारम्भ हो जाता है। यह ऊपर उठती वायु क्षोभ सीमा के पास दो अलग-अलग धाराओं में बंट जाती है। इनमें से एक विषुवत वृत्त की ओर पूर्वी जेट स्ट्रीम के रूप में चलती है तथा दूसरी ध्रुव की ओर पश्चिमी जेट स्ट्रीम के रूप में चलती है।

पूर्वी जेट स्ट्रीम भारत के ऊपरी वायुमण्डल में दक्षिणी पूर्वी दिशा की ओर बहती हुई अरब सागर में नीचे बैठने लगती है। इससे वहां वृहत उच्च दाब का निर्माण होता है। इसके विपरीत भारतीय उप-महाद्वीप के ऊपर जब ये गर्म जेट स्ट्रीम चलती है तो सतह की हवा को ऊपर की ओर खींच लेती है। यहां वृहत निम्न दाब का निर्माण करती है। इस निम्न दाब को भरने के लिए अरब सागर के उच्च भार क्षेत्र से हवाएं उत्तर पूर्व की ओर चलने लगती है। यही दक्षिणी पश्चिमी मानसून पवन हैं।

तथ्य

उष्ण पूर्वी जेट स्ट्रीम के कारण ही भारत में मानसून-पूर्व उष्ण कटिबंधीय चक्रवात आते हैं। इससे भारी वर्षा होती है।

पूर्वी जेट स्ट्रीम न केवल मौसमी है, वरन् अनियमित भी है। जब यह भारत के वृहत क्षेत्र के ऊपर लम्बी अवधि तक चलती है तो बाढ़ की स्थिति बनती है। जब ये हवाएं कमजोर होती हैं तो सूखा आता है।

एलनिनो सिद्धांत

लगभग 3 से 8 वर्षो के अन्तराल पर महासागरों तथा वायुमण्डल में एक विशिष्ट उथल पुथल होती है। इसकी शुरूआत पूर्वी प्रशांत महासागर के पेरू के तट से होती है। पेरू के तट पर हमबोल्ट या पेरू की जलधारा(ठण्डी जलधारा) प्रवाहित होती है। यह जलधारा दक्षिण अमेरिका तट से दुर उत्तर की ओर प्रवाहित होती है। हम्बोल्ट जलधारा की विशेषता शीतल जल का गहराई से ऊपर की ओर आपान है। विषुवत रेखा के पास यह दक्षिण विषुवत रेखा जलधारा के रूप में प्रशांत महासागर के आर पार पश्चिम की ओर मुड़ जाती है।

एलनिनो के आने के साथ ही ठण्डे पानी का गहराई से ऊपर आना बंद हो जाता है एवं ठण्डे पानी का प्रतिस्थापन पश्चिम से आने वाले गर्म जल से हो जाता है। अब पेरू की ठण्डी जलधारा का तापमान बढ़ जाता है। इसके गर्म जल के प्रभाव से प्रथमतः दक्षिणी विषुवतीय मर्ग जलधारा का तापमान बढ़ जाता है। चूंकि दक्षिणी विषुवतीय गर्म जलधारा पूर्व से पश्चिम की ओर जाती है अतः सम्पूर्ण मध्य प्रशांत का जल गर्म हो जाता है तथा वहां निम्न दाब का निर्माण होता है।। जब कभी इस निम्न दाब का विस्तार हिन्द महासागर के पूर्वी-मध्यवर्ती क्षेत्र तक होता है तो यह भारतीय मानसून की दिशा को संशोधित कर देती है। इस निम्न दाब की तुलना में भारतीय उपमहाद्वीप के स्थलीय भाग पर बना निम्न दाब(ग्रीष्म ऋतु में) तुलनात्मक रूप से कम होता है। अतः अरब सागर के उच्च दाब क्षेत्र से हवाओं का प्रवाह दक्षिण-पूर्वी हिन्दमहासागर की ओर होने लगता है। इससे भारतीय उपमहाद्वीप में सूखे की स्थिति बनती है। इसके विपरीत लब एलनिनो धारा का प्रभाव मध्यवर्ती प्रशांत तक सीमित रहता है दो दक्षिणी पश्चिमी मानसून पवनों का मार्ग बाधित नहीं होता तथा भारत में भरपूर वर्षा होती है।

दक्षिण-पश्चिम मानसून

सामान्यतः भारत में मानसून का समय जून से सितम्बर तक रहता है। इस समय उत्तर-पश्चिमी भारत तथा पाकिस्तान में निम्न वायुदाब का क्षेत्र बन जाता है। अतः उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र उत्तर की ओर खिसकता हुआ शिवालिक के पर्वत पाद तक चला जाता है। इसके कारण भारतीय उपमहाद्वीप के ऊपर सिंधु-गंगा मैदान में एक लम्बाकार निम्न दाबीय मेखला का निर्माण होता है। जिसे मानसून गर्त कहते हैं। इस निम्न दाब को भरने के लिए दक्षिणी गोलार्द्ध में चलने वाली दक्षिणी पूर्वी वाणिज्यिक पवन विषुवत रेखा को पार कर पूर्व की ओर मुड जाती है(फेरेल के नियमानुसार) तथा दक्षिणी-पश्चिमी मानसूनी पवन का रूप ले लेती है।

भारत में दक्षिणी-पश्चिमी मानसून की उत्पत्ति का संबंध ‘उष्ण पूर्वी जेट स्ट्रीम’ से है। दक्षिण पश्चिमी मानसून भारत में सर्वप्रथम अंडमान एवं निकोबार तट पर 25 मई को पहुंचता है। फिर 1 जून को चेन्नई एवं तिरूअनन्तपुरम तक पहुंचता है। 5 से 10 जून के बीच कोलकाता एवं मुंबई को छुता है। 10 से 15 जून के बीच पटना, अहमदाबाद, नागपुर तक पहुंचता है। 15 जून के बाद लखनऊ, दिल्ली, जयपुर जैसे शहरों में पहुंचता है। प्रायद्वीपीय भारत में दस्तक देने के बाद दक्षिण-पश्चिम मानसून दो शाखाओं में बंट जाता है।

  1. अरब सागरीय शाखा
  2. बंगाल की खाड़ी शाखा

भारतीय दक्षिणी पश्चिमी मानसून की अरब सागरीय शाखा

दक्षिणी पश्चिमी मानसून की यह शाखा पश्चिमी घाट की उच्च भूमि में लगभग समकोण पर दस्तक देती है। अरब सागर शाखा द्वारा भारत के पश्चिमी तट, पश्चिमी घाट पर्वत, महाराष्ट्र, गुजरात एवं मध्यप्रदेश के कुछ हिस्सों में वर्षा होती है।

अरब सागर शाखा द्वारा भारत के पश्चिमी घाट पर्वत के पश्चिमी ढ़ाल पर तटीय तटीय भाग की तुलना में अधिक वर्षा होती है। उदाहरणस्वरूप महाबलेश्वर में 650 सेमी. वर्षा होती है। जबकि मुंबई में मात्र 190 सेमी. वर्षा होती है। पश्चिमी घाट पर्वत के पूर्वी भाग में वर्षा की मात्रा काफी कम होती है क्योंकि यह वृष्टिछाया प्रदेश है। पुणे में मात्र 60 सेमी. वर्षा होती है।

अरब सागर शाखा राजस्थान से गुजरती हुई हिमालय से टकराती है तथा जम्मू कश्मीर एवं हिमाचल प्रदेश के पर्वतीय ढ़ालों पर वर्षा करती है। राजस्थान से गुजरने के बावजूद इस मानसूनी शाखा द्वारा यहां वर्षा नहीं हो पाती इसके दो प्रमुख कारण हैं-

अरावली पर्वतमाला की दिशा का इन मानसूनी पवनों के प्रवाह की दिशा के समानान्तर होना।

सिंध प्रदेश(पाकिस्तान) से आने वाली गर्म एवं शुष्क हवाएं मानसूनी पवनों की सापेक्षिक आर्द्रता को कम कर देती है। जिससे वायु संतृप्त नहीं हो पाती।

अरब सागरीय शाखा का वृष्टिछाया क्षेत्र

पश्चिमी घाट पार करने के पश्चात् वर्षा लाने वाली वायु धाराएं पूर्वी ढ़लानों पर ऊपर की ओर चली जाती हैं जहां वे रूद्धोष्म प्रक्रिया के कारण गर्म हो जाती हैं। इसके फलस्वरूप वृष्टिछाया क्षेत्र का निर्माण होता है। पहाड़ की ऊंचाई जितनी अधिक होगी, उतना ही अधिक वृष्टिछाया क्षेत्र का निर्माण होगा।

दक्षिणी पश्चिमी मानसून की बंगाल की खाड़ी शाखा

मानसून की यह शाखा श्रीलंका से इंडोनेशिया द्वीप समूहों के सुमात्रा द्वीप तक सक्रिय रहती है। बंगाल की खाड़ी शाखा दो धाराओं में आगे बढ़ती है। इस शाखा की उत्तरी धारा मेघालय में स्थित खासी पहाडि़यों में दस्तक देती है तथा इसकी दूसरी धारा निम्न दबाब द्रोणी के पूर्वी छोर पर बायीं ओर मुड जाती है। यहां से यह हवा की धारा हिमालय की दिशा के साथ-साथ दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम दिशा में बढ़ती है। यह धारा उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में वर्षा करती है।

उत्तर मैदानी क्षेत्र में मानसूनी वर्षा को पश्चिम से बहने वाले चक्रवाती गर्त या पश्चिमी हवाओं से ओर अधिक बल मिलता है। मैदानी इलाकों में पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण में वर्षा की तीव्रता में कमी आती है। पश्चिम में वर्षा में कमी का कारण नमी के स्त्रोत से दूरी बढ़ना है। दूसरी ओर उत्तर से दक्षिण में वर्षा की तीव्रता में कमी की वजह नमी के स्त्रोत का पर्वतों से दूरी का बढ़ना है।

अरब सागरीय शाखा एवं बंगाल की खाड़ी शाखा दोनों शाखाएं छोटानागपुर के पठार में मिलती हैं।

अरब सागरीय मानसून शाखा, बंगाल की खाड़ी शाखा से अधिक शक्तिशाली है। इसके दो प्रमुख कारण हैं –

  1. अरब सागर बंगाल की खाड़ी से आकार में बड़ा है।
  2. अरब सागर की अधिकांश शाखा भारत में पड़ती है जबकि बंगाल की खाड़ी शाखा से म्यांमार, मलेशिया और थाइलैण्ड तक चली जाती है।

दक्षिण पश्चिम मानसून अवधि के दौरान भारत का पूर्वी तटीय मैदान(विशेष रूप से तमिलनाडु) तुलनात्मक रूप से शुष्क रहता है। क्योंकि यह मानसूनी पवनों के समानान्तर स्थित है और साथ ही यह अरब सागरीय शाखा के वृष्टिछाया क्षेत्र में पड़ता है।

उत्तरी पूर्वी मानसून या मानसून की वापसी

सितम्बर के अंत तक उत्तर-पश्चिम में बना निम्न दबाब कमजोर होने लगता है और अन्ततः वह विषुवत रेखीय प्रदेश की तरफ चला जाता है। चक्रवाती अवस्थाओं के स्थान पर प्रति चक्रवाती अवस्थाएं आ जाती हैं। परिणामस्वरूप, हवाएं उत्तरी क्षेत्र से दूर बहना शुरू कर देती हैं। उसी समय विषुवत रेखा के दक्षिण में सूर्य आगे बढ़ता नजर आता है। अन्तः ऊष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र भी विषुवत रेखा की ओर आगे बढ़ता है। इस समय भारतीय उपमहाद्वीप में हवाएं उत्तर पूर्व से दक्षिणी पश्चिमी दिशा में बहती हैं। यह स्थिति अक्टूबर से मध्य दिसम्बर तक लगातार बनी रहती है। जिसे मानसून की वापसी या फिर उत्तर पूर्व मानसून कहते हैं। दिसम्बर के अंत तक, मानसून पूरी तरह से भारत से जा चुका होता है।

बंगाल की खाड़ी के ऊपर से वापस जा रहा मानसून, मार्ग में आर्द्रता नमी ग्रहण कर लेता है जिससे अक्टूबर-नवम्बर में पूर्वी या तटीय उड़ीसा, तमिलनाडु और कर्नाटक के कुछ हिस्से में वर्षा होती है। अक्टूबर में बंगाल की खाड़ी में निम्न दबाब बनता है, जो दक्षिण की ओर बढ़ जाता है और नवम्बर में उड़सा और तमिलनाडु तट के बीच फंस जाने से भारी वर्षा होती है।

मानसून में रूकावट

वर्षा ऋतु में, जुलाई और अगस्त महीने में कुछ ऐसा समय होता है जब मानसून कमजोर पड़ जाता है। बादलों का बनना कम हो जाता है और विशेष रूप से हिमालयी पट्टी और दक्षिण पूर्व प्रायद्वीप के ऊपर वर्षा होनी बंद हो जाती है। इसे मानसून में रूकावट के नाम से जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि ये रूकावटें तिब्बत के पठार की कम ऊंचाई की वजह से आती है। इससे मानसून गर्त उत्तर की ओर मुड़ जाता है। इस अवधि में जहां पूरे देश को बिना वर्षा के ही संतोष करना पड़ता है तब उप-हिमालयी प्रदेशों एवं हिमालय के दक्षिणी ढ़लानों में भारी वर्षा होती है।

पश्चिमी विक्षोभ

आमतौर पर जब आकाश साफ रहता है परन्तु पश्चिम दिशा से हवाओं के आने से अच्छे मौसम के दौर में विध्न पड़ जाता है। ये पश्चिमी हवाएं भूमध्य सागर से आती हैं और इराक, ईरान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान को पार करने के पश्चात् भारत में प्रवेश करती हैं।

ये हवाएं राजस्थान, पंजाब और हरियाणा में तीव्र गति से बहती हैं। ये उप-हिमालयी पट्टी के आसपास पूर्व की ओर मुड़ जाती हैं। और सीधे अरूणाचल प्रदेश तक पहुंच जाती हैं। जिससे गंगा के मैदानी इलाकों में हल्की वर्षा और हिमालयी पट्टी में हिमवर्षा होती है।

यह घटना मुख्य रूप से शीत ऋतु में होती है क्योंकि इस समय उत्तर पश्चिम भारत में एक क्षीण उच्च दाब का निर्माण होता है। इसी समय भारत पर ‘पश्चिमी जेट स्ट्रीम’ का प्रभाव होता है जो भूमध्य सागर से उठने वाले शीतोष्ण चक्रवात को भारत में लाती है। इसे ही ‘पश्चिमी विक्षोभ’ कहते हैं। इससे मुख्य रूप से प्रभावित राज्य – पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश एवं जम्मू कश्मीर हैं। इससे होने वाली वर्षा रबी की फसल के लिए बहुत उपयोगी है यह वर्षा ‘मावठ’ नाम से जानी जाती है।

भारत की ऋतुएं

भारतीय मौसम विभाग द्वारा भारत की जलवायु को चार ऋतुओं में विभाजित किया गया है –

  1. शीत ऋतु
  2. ग्रीष्म ऋतु
  3. वर्षा ऋतु
  4. शरद ऋतु

शीत ऋतु

इसका काल मध्य दिसम्बर से फरवरी तक माना जाता है। इस समय सूर्य की स्थिती दक्षिणायन हो जाती है। अतः उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित भारत का तापमान कम हो जाता है। इस ऋतु में समताप रेखाएं पूर्व से पश्चिम की ओर प्राय सीधी रहती हैं। 20 डिग्री से. की समताप रेखा भारत के मध्य भाग से गुजरती है। इस ऋतु में भूमध्य सागर से उठने वाला शीतोष्ण चक्रवात ‘पश्चिमी जेट स्ट्रीम’ के सहारे भारत में प्रवेश करता है। इसे ‘पश्चिमी विक्षोभ’ कहते हैं। यह पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश एवं जम्मू-कश्मीर में वर्षा करवाता है। शीतकाल में होने वाली यह वर्षा ‘मावठ’ कहलाती है। यह वर्षा रबी की फसल के लिए उपयोगी है।

ग्रीष्म ऋतु

यह ऋतु मार्च से मई तक रहती है। सूर्य के उत्तरायण में होने से सारे भारत में तापमान बढ़ जाता है। इस ऋतु में उत्तर और उत्तर-पश्चिमी भारत में दिन के समय तेज गर्म एवं शुष्क हवाएं चलती हैं। जो ‘लू’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। इस ऋतु में सूर्य के क्रमशः उत्तरायण होते जाने के कारण अन्तः उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र उत्तर की ओर खिसकने लगता है एवं जुलाई में 25 डिग्री अक्षांश रेखा को पार कर जाता है।

इस ऋतु में स्थलीय शुष्क एवं गर्म पवन जब समुद्री आर्द्र पवनों से मिलती है तो उन जगहों पर प्रचण्ड तूफान की उत्पत्ति होती है। इसे मानसून पूर्व चक्रवात के नाम से जाना जाता है।

भारत में मानसून पूर्व चक्रवात के स्थानीय नाम

नाॅर्वेस्टर – छोटा नागपुर का पठार पर ग्रीष्म काल में चलने वाली पवनें नाॅर्वेस्टर कहलाती है। यह बिहार एवं झारखण्ड राज्य को प्रभावित करती है।

जब नाॅर्वेस्टर पवनें पूर्व की ओर आगे बढ़ कर पश्चिम बंगाल राज्य में पहुंचती है तो इन्हें काल वैशाली कहा जाता है। तथा जब यही पवनें पूर्व की ओर आगे पहुंच कर असम राज्य में पहुंचती है तो यहां 50 सेमी. वर्षा होती है। यह वर्षा चाय की खेती के लिए अत्यंत उपयोगी होती है इसलिए इसे चाय वर्षा या टी. शावर कहा जाता है।

मैंगो शावर – तमिलनाडू, केरल एवम् आन्ध्रप्रदेश राज्यों में मानसुन पूर्व जो वर्षा होती है जिससे यहां की आम की फसलें पकती है वह वर्षा मैंगो शाॅवर कहलाती है।

चैरी ब्लाॅस्म – कर्नाटक राज्य में मानसून पूर्व जो वर्षा होती है जो कि यहां की कहवा की फसल के लिए अत्यधिक उपयोगी होती है चैरी ब्लाॅस्म या फुलों की बौछार कहलाती है।

आंधियों के नाम

उत्तर की ओर से आने वाली – उत्तरा, उत्तराद, धरोड, धराऊ

दक्षिण की ओर से आने वाली – लकाऊ

पूर्व की ओर से आने वाली – पूरवईयां, पूरवाई, पूरवा, आगुणी

पश्चिम की ओर से आने वाली – पिछवाई, पच्छऊ, पिछवा, आथूणी।

अन्य

उत्तर-पूर्व के मध्य से – संजेरी

पूर्व-दक्षिण के मध्य से – चीर/चील

दक्षिण-पश्चिम के मध्य से – समंदरी/समुन्द्री

उत्तर-पश्चिम के मध्य से – सूर्या

वर्षा ऋतु

इस ऋतु का समय जून से सितम्बर तक रहता है। इस समय उत्तर पश्चिमी भारत तथा पाकिस्तान में निम्न वायुदाब का क्षेत्र(तापमान अधिक होने के कारण) बन जाता है। अतः उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र उत्तर की ओर खिसकता हुआ शितालिक के पर्वत पाद तक चला जाता है। एवं गंगा के मैदानी क्षेत्र में निम्न दाब बन जाता है इस दाब को भरने के लिए दक्षिणी पूर्वी व्यापारिक पवनें विषुवत रेखा को पार कर दक्षिणी पश्चिमी मानसूनी पवनों के रूप में भारत में प्रवेश करती है। ये दक्षिणी पश्चिमी मानसूनी पवनें दो शाखाओं में विभाजित हो जाती हैं। पहली शाखा अरब सागरीय शाखा भारत के पश्चिमी घाट, पश्चिमी घाट पर्वत, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश एवं जम्मू-कश्मीर में वर्षा करती है। दूसरी शाखा, बंगाल की खाड़ी शाखा, उत्तर-पूर्वी भारत, पूर्वी भारत एवं उत्तर प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखण्ड आदि भागों में वर्षा करती है।

गारो, खासी एवं जयन्तिया पहाडि़यां कीपनुमा आकृति में फैली हैं एवं समुद्र की ओर खुली हुई हैं अतः बंगाल की खाड़ी से आने वाली हवाएं यहां फस जाती हैं और अत्यधिक वर्षा करती हैं।

खासी पहाड़ी के दक्षिणी भाग में स्थित ‘मासिनराम’ संसार का सर्वाधिक वर्षा वाला स्थान है।

शरद ऋतु

शरद ऋतु उष्ण बरसाती मौसम से शुष्क व शीत मौसम के मध्य संक्रमण का काल है। शरद ऋतु का आरंभ सितंबर मध्य में होता है। यह वह समय है जब दक्षिण-पश्चिम मानसून लौटता है- लौटते मानसून के दौरान तापमान व आर्द्रता अधिक होती है जिसे ‘‘अक्टूूबर हीट’’ कहते हैं। मानसून के लौटने पर प्रारंभ में तापमान बढ़ता है परंतु उसके उपरांत तापमान कम होने लगता है। सितंबर मध्य तक मानसूनी पवनें पंजाब तक वर्षा करती हैं। मध्य अक्टूबर तक मध्य भारत में व नवंबर के आरम्भिक सप्ताहों में दक्षिण भारत तक मानसूनी पवनें वर्षा कर पाती हैं और इस प्रकार भारतीय उपमहाद्वीप से मानसून की विदाई नवंबर अंत तक हो जाती है। यह विदाई चरणबद्ध होती है इसीलिए इसे ‘‘लौटता दक्षिण-पश्चिम मानसून’’ कहते हैं।

दैनिक गति/घुर्णन गति

पृथ्वी अपने अक्ष पर 23 1/2 डिग्री झुकी हुई है। यह अपने अक्ष पर पश्चिम से पूर्व 1610 किमी./घण्टा की चाल से 23 घण्टे 56 मिनट और 4 सेकण्ड में एक चक्र पुरा करती है। इस गति को घुर्णन गति या दैनिक गति कहते हैं इसी के कारण दिन रात होते हैं।

वार्षिक गति/परिक्रमण गति

पृथ्वी को सूर्य कि परिक्रमा करने में 365 दिन 5 घण्टे 48 मिनट 46 सैकण्ड लगते हैं इसे पृथ्वी की वार्षिक गति या परिक्रमण गति कहते हैं। इसमें लगने वाले समय को सौर वर्ष कहा जाता है। पृथ्वी पर ऋतु परिर्वतन, इसकी अक्ष पर झुके होने के कारण तथा सूर्य के सापेक्ष इसकी स्थिति में परिवर्तन यानि वार्षिक गति के कारण होती है। वार्षिक गति के कारण पृथ्वी पर दिन रात छोटे बड़े होते हैं।

पृथ्वी के परिक्रमण काल में 21 मार्च एवम् 23 सितम्बर को सूर्य की किरणें भूमध्य रेखा पर सीधी पड़ती हैं फलस्वरूप सम्पूर्ण पृथ्वी पर रात-दिन की अवधि बराबर होती है।

विषुव

जब सुर्य की किरणें भुमध्य रेखा प सीधी पड़ती है तो इस स्थिति को विषुव कहा जाता है। वर्ष में दो विषुव होते हैं।

21 मार्च को बसन्त विषुव तथा 23 सितम्बर को शरद विषुव होते हैं

आयन

23 1/20 उत्तरी अक्षांश से 23 1/20 दक्षिणी अक्षांश के मध्य का भु-भाग जहां वर्ष में कभी न कभी सुर्य की किरणें सीधी चमकती है आयन कहलाता है यह दो होते हैं।

उत्तरी आयन(उत्तरायण) – 0 अक्षांश से 23 1/20 उत्तरी अक्षांश के मध्य।

दक्षीण आयन(दक्षिणायन) – 0 अक्षांश से 23 1/20 दक्षिणी अक्षांश के मध्य।

आयनान्त

जहां आयन का अन्त होता है। यह दो होते हैं

उत्तरीआयन का अन्त(उत्तरयणान्त) – 23 1/20 उत्तरी अक्षांश/कर्क रेखा पर 21 जुन को उत्तरी आयन का अन्त होता है।

दक्षिणी आयन का अन्त – 23 1/20 दक्षिणी अक्षांश/मकर रेखा पर 22 दिसम्बर को दक्षिणाअन्त होता है।

पृथ्वी के परिक्रमण काल में 21 जून को कर्क रेखा पर सूर्य की किरणें लम्बवत् रहती है फलस्वरूप उत्तरी गोलार्द्ध में दिन बड़े व रातें छोटी एवम् ग्रीष्म ऋतु होती है जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध में सुर्य की किरणें तीरछी पड़ने के कारण दिन छोटे रातें बड़ी व शरद ऋतु होती है।

तथ्य

उत्तरी गोलार्द्ध का सबसे बड़ा दिन – 21 जुन

दक्षिणी गोलार्द्ध की सबसे बड़ी रात – 21 जुन

उत्तरी गोलार्द्ध की सबसे छोटी रात – 21 जुन

दक्षिणी गोलार्द्ध का सबसे छोटा दिन – 21 जुन

पृथ्वी के परिक्रमण काल में 22 दिसम्बर को मकर रेखा पर सुर्य की किरणें लम्बवत् रहती है फलस्वरूप दक्षिण गोलार्द्ध में दिन बड़े, रातें छोटी एवम् ग्रीष्म ऋतु होती है जबकि उत्तरी गोलार्द्ध में सुर्य कि किरणें तीरछी पड़ने के कारण दिन छोटे, रातें बड़ी व शरद ऋतु होती है।

तथ्य

दक्षिणी गोलार्द्ध का सबसे बड़ा दिन – 22 दिसम्बर

उत्तरी गोलार्द्ध की सबसे बड़ी रात – 22 दिसम्बर

दक्षिणी गोलार्द्ध की सबसे छोटी रात – 22 दिसम्बर

उत्तरी गोलार्द्ध का सबसे छोटा दिन – 22 दिसम्बर

कटिबन्ध

कोई भी दो अक्षांश के मध्य का भु-भाग कटिबंध कहलाता है।

गोर

कोई भी दो देशान्तर के मध्य का भु-भाग गोर कहलाता है।

भारत दो कटिबन्धों में स्थित है।

उष्ण कटिबंध और शीतोष्ण कटिबंध

वृष्टि प्रदेश एवं वृष्टि छाया प्रद

अल-नीनो – यह एक मर्ग जल धारा है जो कि दक्षिण अमेरिका महाद्विप के पश्चिम में प्रशान्त महासागर में ग्रीष्मकालीन मानसून के दौरान सक्रिय होती है इससे भारतीय मानसून कमजोर पड़ जाता है। और भारत एवम् पड़ौसी देशों में अल्पवृष्टि एवम् सुखा की स्थिति पैदा हो जाती है।

ला-नीनो – यह एक ठण्डी जल धारा है जो कि आस्टेªलिया यह महाद्वीप के उत्तर-पूर्व में अल-नीनों के विपरित उत्पन्न होती है इससे भारतीय मानसून की शक्ति बढ़ जाती है और भारत तथा पड़ौसी देशों में अतिवृष्टि की स्थिति पैदा हो जाती है।

उपसौर और अपसौर

उपसौर – सुर्य और पृथ्वी की बीच न्युन्तम दुरी(1470 लाख किमी.) की घटना 3 जनवरी को होती है उसे उपसौर कहते हैं।

अपसौर – सुर्य और पृथ्वी के बीच की अधिकतम दुरी(1510 लाख किमी.) की घटना जो 4 जुलाई को होती है उसे अपसौर कहते हैं।

तथ्य

केरल में जून के प्रथम सप्ताह में दक्षिणी पश्चिमी मानसून आता है।

भारत में वर्षा जल का मुख्य स्त्रोत दक्षिणी पश्चिमी मानसून है।

लेह सबसे कम वर्षा प्राप्त करने वाला स्थान है।

विश्व का सर्वाधिक वर्षा वाला स्थान मासिनराम मेघालय है।

मासिनराम(मेघालय) एवं चेरापूंजी(मेघालय) इन दोनों स्थानों पर वर्षा होने का प्रमुख कारण बंगाल की खाड़ी की अधिक आर्द्रता वाली हवाओं का इस क्षेत्र से सीधा टकराना।

मानसून वर्षा पार्वत्य वर्षा कहलाती है।

वर्षा का दिन वह होता है जब किसी विशेष स्थान पर 24 घंटे में 2.5 मिमी. या उससे अधिक वर्षा हो।

तमिलनाडु उत्तरी पूर्वी मानसून से सर्वाधिक वर्षा प्राप्त करता है।

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