दक्षिण भारत का इतिहास -GURUGGKWALA

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दक्षिण भारत का इतिहास

दक्षिण भारत में लौह युग

दक्षिण भारत में लोहे का सर्वप्रथम उपयोग लगभग 1100 ई.पू. से प्रारंभ हुआ। इसका प्राचीनतम साक्ष्य हल्लुर(उल्लुरू) से प्राप्त वस्तुएं मानी गयी हैं। दक्षिण भारत में लौह युग की अधिकांश जानकारी महापाषाण युगीन कब्रों की खुदायी से मिलती है।

महापाषाण काल से तात्पर्य

जब मृतकों को आबादी से दूर कब्रिस्तानों में पत्थरों के बीच दफनाया जाता था। यह परंपरा लौह युग के साथ प्रारंभ हुई।

दक्षिण भारत में महापाषाण युग

नवीन शोधों में दक्षिण भारत के महापाषाण युग का काल का आरंभ 1000 ई.पू. से माना जाता है।

महापाषाण संस्कृति की विशेषताएं

  1. लौह युग से सम्बद्धता
  2. काले एवं लाल मृद भाण्डों का व्यापक उपयोग।

महापाषाणिक जीवन

  1. लोग पहाड़ी ढ़लानों पर रहते थे एवं कृषि का व्यापक विकास नहीं था।
  2. ईसा की प्रथम सदी में लोग नदियों के मुहानों की उपजाऊ भूमि पर रहने लगे तथा कृषि का विकास शुरू हुआ।
  3. वे प्रायद्वीप के ऊंचे इलाकों में रहते थे लेकिन जमाव पूर्वी आन्ध्रप्रदेश एवं तमिलनाडु में अधिक था।

महापाषाण कालीन शवाधान के प्रकार

पीट सर्किल(गर्त चक्र) – शव को मांस रहित बनाकर दफनाया जाता था एवं गढ़ढे के चारों ओर पत्थरों का चक्र बनाया जाता था।

ताबूत – ग्रेनाइट की चट्टानों के ताबूत में शव को रखकर ऊपर से अन्य शिलाएं रख दी जाती थी।

पंक्तिबद्ध दीर्घामास्तम्भ(मेनहिर) – इसकी ऊंचाई 2 से 6 मीटर होती थी। ये एक स्तंभ रूप में दफनाए जाने का प्रकार था।

संगम काल

काल निर्धारण

संगम के काल निर्धारण को लेकर विद्वानों में मतभेद है।

आ.सी. मजूमदार – प्रथम सदी से तीसरी शताब्दी तक

एस. वैयपुरा पिल्लई – 300 ई.पू. से 500 ई. तक

एन. सुब्राह्मन्यम – 300 ई.पू. से 300 ई. तक

संगम साहित्य का सृजन काल 300 ई.पू. से 300 ई.पू. तक माना गया है।

संगमों का आयोजन

प्रथम संगम-

स्थल: मदुरै, अध्यक्ष – अगत्तियार(अगस्त ऋषि)

सदस्यों की संख्या – 549, ग्रंथ – अगत्तियम

द्वितीय संगम-

स्थल – कपाटपुरम/अलवै अध्यक्ष – अगत्तियार/तोलकाप्पियर

सदस्यों की संख्या – 49, ग्रंथ – तोलकाप्पियम

तृतीय संगम-

स्थल – उत्तरी मदुरै अध्यक्ष – नककीरर

सदस्यों की संख्या – 49 ग्रंथ – पत्तुप्पात्रु, इत्तुतोगई एवं पदनेनकीलकणक्कु

संगमकालीन राजवंश

चेर राज्य

संगमकालीन राज्यों में यह सबसे प्राचीन माना जाता है।

इसमें केरल एवं तमिलनाडु का हिस्सा सम्मिलित था।

चेर राज्य की राजधानी कोरकई/वंजीपुर थी।

चेर राज्य का प्रथम शासक उदयन जेराल था।

चेर राज्य का प्रतीक चिन्ह – धनुष था।

शेनगुट्टवन ने सर्वप्रथम पत्नी पूजा प्रारंभ की।

अदिग/ईमान या अदिगैमान अंजी ने सर्वप्रथम दक्षिण भारत में गन्ने की खेती की शुरूआत की।

कुडक्को इंजेराल इरपोरई अंतिम चेर शासक था।

चोल राज्य

यह पेन्नार एवं वेल्लार नदी के मध्य स्थित था।

इसकी राजधानी उत्तरी मनलूर/उरैयूर/कावेरीपतनम थी।

चोल राज्य का प्रतीक चिन्ह बाघ था।

चोल राजा एलारा ने श्रीलंका पर विजय प्राप्त की।

करिकाल – चोल राजाओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण

बेण्णि के युद्ध में चेर एवं पाण्ड्य सहित 11 राजाओं को हराया।

वाहैप्परन्दलाई के युद्ध में 9 राजाओं को हराया।

कावेरी नदी पर पुल बनवाया एवं राजधानी कावेरीपत्तनम स्थानान्तरित की।

पेरूनरकिल्लि ने राजसूय यज्ञ किया।

पाण्ड्य वंश/राज्य

यह भारतीय प्रायद्वीप के दक्षिण पूर्व भाग में था।

पाण्ड्य राज्य की राजधानी कोलकई/मदुरा थी।

पाड्य राज्य का प्रतीक चिन्ह मछली था।

पाण्ड्य राज्य का प्रथम-शासक पलशालइमुडुकुडुमी था।

तलैमालंगानम का युद्व

इस युद्ध में पाण्ड्य शासक नेडुजेलियन ने चोल व चेर सहित 7 मित्र सामंतों को हराया था।

नल्लिवकोडन अंतिम पाण्ड्य शासक था।

तथ्य

संगम काल राजतंत्रात्मक था एवं राजा का पद वंशानुगत था।

न्याय व्यवस्था का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था।

समाज में वर्ण व्यवस्था का प्रभाव था।

अर्थ व्यवस्था का मुख्य आधार कृषि एवं व्यापार थे।

आन्तरिक व्यापार वस्तु विनिमय पर आधारित था।

वैदिक धर्म की प्रधानता थी।

गुरूगन स्वामी(सुब्राह्मण्यम) की पूजा प्रचलित थी।

पशुबलि की प्रथा प्रचलित थी।

दक्षिण भारत का द्वितीय चरण

इस समय दक्षिण भारत में अनेक राज्यों का उदय हुआ। जैसे – पल्लव, चालुक्य, चोल।

भूमि अनुदान की प्रचुरता में वृद्धि हुई।

बौद्ध एवं जैन धर्म की तुलना में ब्राह्मण धर्म का प्रचार प्रसार हुआ।

इस युग में दक्षिण भारत में अनेक मन्दिर बने। यह मन्दिरों का युग था।

प्राकृत भाषा के स्थानीय एवं संस्कृत भाषा का प्रभाव बढ़ा।

पल्लव वंश

पल्लव वंश का संस्थापक बप्पदेव था जो संभवतः सातवाहन शासकों के अधीन प्रांतीय शासक था तथा मौका पाकर एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।

पल्लव वंश का वास्तविक संस्थापक सिंहविष्णु को माना जाता है। यह एक शक्तिशाली शासक था। इसने अवनिसिंह की उपाधि धारण की।

नरसिंह वर्मन-1 ने महाबलिपुरम नगर बसाया था।

नरसिंह वर्मन-2(राजसिंह)

नरसिंह वर्मन प्रथम ने कांची में कैलाश मंदिर एवं महाबलिपुरम के शोर मंदिर(तटीय मंदिर) का निर्माण करवाया।

इसके दरबार में दण्डिन रहते थे। दण्डिन ने दशकुमार चरित एवं अवन्ती सुन्दरी की रचना की

पल्लव वंश के राजाओं का क्रम

सिंहविष्णु, महेन्द्र वर्मन-1, नरसिंह वर्मन-1, महेन्द्र वर्मन-2, परमेश्वर वर्मन-1, नरसिंह वर्मन-2, परमेश्वर वर्मन-2, नंदिवर्मन-2, अपराजित पल्लव(अंतिम)

चालुक्य वंश

कुछ प्राचीन ग्रंथो में चालुक्य वंश की स्थापना जयसिंह द्वारा किया गया माना जाता है परन्तु इसका कोई प्रमाण नहीं है। अतः चालुक्य वंश की स्थापना का श्रेय पुलकेशिन-1 को प्राप्त है।

चालुक्य वंश कई शाखाओं में विभाजित था परन्तु चालुक्य वंश की मूल शाखा बातापी/बादामी की शाखा थी।

चालुक्य वंश के संस्थापक पुलकेशिन-1 वातापी(बादामी) को अपनी राजधानी बनाया।

चालुक्य वंश की शाखाएं

वातापी के चालुक्य

पुलकेशिन-1

चालुक्य वंश का संस्थापक।(दो पुत्र: कीर्तिवर्मन-1 एवं मंगलेश)

अश्वमेध एवं वाजपेय यज्ञ करवाए।

कीर्तिवर्मन-1

यह पुलकेशिन-1 का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था।

इसकी मृत्यु के बाद इसका भाई मंगलेश शासक बना।

पुलकेशिन द्वितीय

चालुक्य वंश का सबसे प्रतापी शासक।

सत्याश्रय श्री पृथ्वीवल्लभ महाराज की उपाधि धारण की।

इसका दरबारी कवि रविकीर्ति था।

इसने हर्षवर्धन(कन्नौज का सम्राट) को हराया था। इस विजय के पश्चात् पुलकेशिन-2 को परमेश्वर की उपाधि दी।

इसने अपने भाई विष्णु वर्धन को बेंगी का राज्य सौपा इस प्रकार चालुक्य वंश की बैंगी शाखा का उदय हुआ।

विक्रमादित्य -1

यह पुलकेशिन-2 का पुत्र था।

इसके शासन में चोलों, पाण्ड्यों और केरलों ने स्वंय को स्वतंत्र घोषित कर दिया। विक्रमादित्य ने इन तीनों की शक्ति को समाप्त किया।

विक्रमादित्य ने अपने छोटे भाई जयसिंहवर्मन को लाट का गवर्नर बनाया। इस प्रकार उसने यहां चालुक्य वंश की गुजरात शाखा की स्थापना की।

विक्रमादित्य -2

विक्रमादित्य-2 ने चोलों, पांड्यों, केरलों एवं कलभ्रों को हराया था।

कीर्तिवर्मन-2

इसने पल्लव शासकों को समाप्त किया।

उपाधियां – सार्वभौम, लक्ष्मी, पृथ्वी का प्रिय, राजाओं का राजा।

यह बादामी के चालुक्यों का अंतिम शासक था।

चाल्युक्यों के सामन्त, राष्ट्रकूट दंतिदुर्ग ने कीर्तिवर्मन-2 को पराजित किया एवं चालुक्यों की बादामी शाखा का अंत हो गया।

चोल साम्राज्य

चोल साम्राज्य का संस्थापक विजयालय था। वैसे संगम काल में चोल वंश का संस्थापक एलनजेत चेन्नी(राजधानी-मनलूर) को माना जाता है। करिकाल ने राजधानी उरैयूर को बनाया था।

विजयालय ने तंजावुर(तंजौर) को अपनी राजधानी बनाया।

आदित्य-1 ने पाण्ड्य एवं पल्लव शासकों को हराकर कोण्डाराम की उपाधि ली।आदित्य-1 विजयालय का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था।

राजराजा प्रथम

अन्य नाम – अरिमोली वर्मन

चह चोलों की महत्ता का वास्तविक संस्थापक था।

उपाधियां – जगन्नाथ, चोल मात्र्तण्ड, चोल नारायण, राजाश्रय आदि।

राजाराज-1 की विजय

  1. केरल के चेर शासक भास्कर वर्मा को हराया।
  2. पाण्ड्य राजा अमर भुजंग को हराया।
  3. श्रीलंका के राजा महेन्द्र-5 को हराया। राजधानी अनुराधापुर को ध्वस्त किया एवं श्री लंका की नयी राजधानी “पोल्लोन्नरूप” को बनाया।
  4. श्री लंका विजय के उपलक्ष्य में जगन्नाथ की उपाधि ली।
  5. कलिंग क्षेत्र पर विजय प्राप्त की।
  6. तंजौर(तंजाबुर) मं वृहदेश्वर मंदिर/राजराजेश्वर मंदिर का निर्माण किया।
  7. चालुक्यों को हराकर चोलनारायण की उपाधि ली।

वृहदेश्वर मंदि(तंजौर)

यह पूरी तरह ग्रेनाइट से बना हुआ शिव मंदिर है। इसका निर्माण राजा राज-1 ने करवाया यह यूनेस्को की विश्वधरोहर सूची में शामिल है।

राजेन्द्र-1

राजधानी गंगौकोण्डचोलपुरम स्थानांतरित की।

यह राजराजा-1 का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था।

इसने संपूर्ण श्रीलंका पर विजय प्राप्त की।

इसने पाण्ड्यों तथा केरल के चेरों पर विजय प्राप्त की एवं वैंगी के शासकों को परास्त किया।

राजेन्द्र प्रथम की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विजय कडारम के श्री विजय पर थी। इस विजय से मलय, जावा एवं सुमात्रा तक चोलों का अधिकार हो गया।

राजेन्द्र-1 ने अण्डमान निकोबार को भी जीता।

राजेन्द्र-1 के काल में चोल साम्राज्य का विस्तार हुआ।

राजेन्द्र-1 के बाद उसका पुत्र राजाधिराज-1 चोल गद्दी पर बैठा।

राजाधिराज-1

इसने चालुक्य नरेश सोमेश्वर के विरूद्ध कोप्पम के युद्ध में वीरगति प्राप्त की। इसके भाई राजेन्द्र-2 ने चालुक्य सेना को हराया।

राजेन्द्र-2

राजाधिराज की मृत्यु युद्ध मैदान में होने के बाद इसने चालुक्यों को पराजित किया तथा युद्ध स्थल पर ही अपना राज्यभिषेक करवाया।

इसने अश्वमेध यज्ञ करवाया जो प्राचीन भारत का अंतिम अश्वमेध यज्ञ था।

राजेन्द्र-2 के बाद वीर राजेन्द्र(राजकेसरी) गद्दी पर बैठा।

चोल वंश का अंतिम शासक अधिराजेन्द्र था। इसकी हत्या राज्य में हुए जनविद्रोह की भीड ने की। इसके साथ ही चोल वंश की मुख्य शाखा का अध्याय समाप्त हो गया।

तथ्य

केन्द्रीय प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था। राज्य पद वंशानुगत था तथा युवराज ज्येष्ठ पुत्र को बनाया जाता था।

गांव के प्रकार

  1. साधारण गांव/उर – यह साधारण गांव था।
  2. अग्रहार गांव – ये ब्राह्मणों को दान में दिए गए कर मुक्त गांव थे।
  3. देवदान गांव – ये गांव मन्दिरों के लिए दान किए जाते थे।

स्थानीय स्वशासन

यह चोल प्रशासन की सबसे उल्लेखनीय विशेषता थी।

सभाओं के प्रकार

  1. उर – यह गांव की प्रधान समिति होती थी। यह सर्वसाधारण की समिति थी।
  2. सभा/महासभा – यह अग्रहार गांव में होती थी तथा ब्राह्मणों का संगठन था।
  3. नगरम – यह व्यापारियों की समिति होती थी।

समाज वर्ण व्यवस्था पर आधारित था।

सजातीय अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाह होते थे।

पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था।

सती प्रथा व बहु विवाह प्रचलित थे।

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